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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन न्यसनम् । एवमादिभिर्विभावैः कामक्रोधलोभमानमायायनुपरक्ततो परोन्मुखता विवर्जिताक्लिष्टचेतोपशमस्थायिशान्तो रसो भवतिः।'
. अर्थात् देव, मनुष्य, नारक और तिर्यंच के रूप में निरन्तर परिभ्रमण करना संसार कहलाता है । उससे भय होना संसारभय है । विषयों से विमुख हो जाना वैराग्य है । जीव, अजीव, पुण्य, पाप आदि तत्त्वों का तथा मोक्षमार्ग के प्रतिपादक शास्त्र का बार-बार चिन्तन करना तत्त्वशास्त्र का विमर्शन है । इन विभावों से जब काम, क्रोध, लोभ, मान, माया आदि से रहित स्वात्मोन्मुख क्लेशरहित चित्तरूप "शम" स्थायिभाव चर्वणा को प्राप्त होता है, तब वह शान्तरस कहलाता है ।
इसप्रकार तत्त्वज्ञान, वैराग्य, संसारभय, चित्तशुद्धि आदि शान्तरस के विभाव हैं, .. शान्तरस के अनुभाव
भरत मुनि के अनुसार यम, नियम, अध्यात्मध्यान, धारणा, उपासना, सर्वभूतदया, संन्यासधारण आदि शान्तरस के अनुभाव हैं - "तस्य यमनियमाध्यात्मध्यानपारणोपासनसर्वभूतदयालिङ्गग्रहणादिभिरनुभावरभिनयः प्रयोक्तव्यः ।"
काव्यानुशासनकार आचार्य हेमचन्द्र अध्यात्मशास्त्र चिन्तन को भी शान्तरस का अनुभाव मानते हैं। शान्तरस के व्यभिचारिभाव
निर्वेद, स्मृति, धृति, शौच, स्तम्भ, रोमांच आदि शान्तरस के व्यभिचारिभाव हैं -
___ "व्यभिचारिणश्चास्पनिर्वेद-स्मृति-धृति-शौच-स्तम्भ-रोमाञ्चादयः।" शान्तरस सत्ताविषयक विवाद
शान्तरस की स्थिति के विषय में न केवल आधुनिक विद्वानों में किन्तु प्राचीन विद्वानों में भी मतभेद पाया जाता है । इस मतभेद का मुख्य आधार भरतमुनि का "अष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः" यह श्लोक है । भरत के इसी वचन के आधार पर प्राचीन आचार्यों में महाकवि कालिदास, अमरसिंह, भामह और दण्डी आदि ने भी नाट्य के आठ ही रसों का उल्लेख किया है तथा शान्तरस का प्रतिपादन नहीं किया है । इसके विपरीत उद्भट,
१. नाट्यदर्पण, तृतीय विवेक २. नाट्यशास्त्र, षष्ठ अध्याय ३. नाट्यशास्त्र, षष्ठ अध्याय