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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन शान्तरस के स्वरूप को और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं -
“यत्र न दुःखं न सुखं द्वेषो नापि च मत्सरः ।
समः सर्वेषु भूतेषु स शान्तः प्रपतो रसः ॥"" जब न दुःख की अनुभूति होती है, न सुख की, न द्वेष की; न ईर्ष्या की; अपितु समस्त प्राणियों के प्रति समभाव की अनुभूति होती है, उस अवस्था का नाम शान्तरस है ।
काव्यानुशासनकार आचार्य हेमचन्द्र ने शान्तरस का स्वरूप इस प्रकार निरूपित किया है -
"वैराग्यादिविभावस्तृष्णाक्षयरूपः शमः स्थायिभावश्चर्वणां प्राप्तः शान्तो रसः।"
वैराग्यादि विभावों के निमित्त से चर्वणा (आस्वाद) को प्राप्त तृष्णाक्षयरूप "शम" स्थायिभाव शान्तरस कहलाता है । शान्तरस के विभाव
तत्त्वज्ञान, वैराग्य, चित्तशुद्धि आदि शान्तरस के विभाव हैं, जैसा कि भरत मुनि ने कहा है :
"स तु तत्त्वज्ञानवैराग्याशयशुप्यादिभावः समुत्पयते।"
काव्यानुशासनकार हेमचन्द्र ने वैराग्य, संसारभीरुता, तत्त्वज्ञान, वीतरागपरिशीलन, परमेश्वरानुग्रहादि को शान्तरस का विभाव बतलाया है -
__ "वैराग्यसंसारभीरुतातत्त्वज्ञानवीतरागपरिशीलनपरमेश्वरानुग्रहादिविभावो यमनियमाच्यात्मशास्त्रचिन्तनायनुभावो भृतिस्मृतिनिर्वेदमत्यादिव्यभिचारी तृष्णाक्षयरूपः शमः स्थायिभावश्चर्वणां प्राप्तः शान्तो रसः।" नाट्यदर्पणकार भी उपर्युक्त तत्त्वों को ही शान्तरस का विभाव मानते हैं -
"संसारभववैराग्यतत्त्वशास्त्रविमर्शनः ।
शान्तोऽमिनयनं तस्य क्षमा पानोपकारतः" । देवमनुष्यनारकतिर्यग्रूपेण बहुधा परिश्रमणं संसारः, तस्माद् भयम् । वैराग्यं विषयवमुख्यम्। तत्वस्य जीवाजीवपुण्यपापादिरूपपदार्षशास्त्रस्य मोक्षहेतुप्रतिपादकस्य विमर्शनं पुनः पुनश्वेतसि १. नाट्यशास्त्र, षठ अध्याय २. काव्यानुशासन ३. नाट्यशास्त्र, षष्ठ अध्याय ४. काव्यानुशासन, २/१६