________________
१६४
जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन देखकर यह समझीं कि यह हमारे मुखचन्द्र को ग्रसने के लिए राहू आ रहा है, और वे
भयभीत हो गईं -
मित्रेभ्यः आरात्पतिता विकीर्णा वक्षःस्थलेभ्यो मृदुहारचाराः 1 सरक्तवान्ता दशना इवाभुः परेतराजोऽथ यकैस्तता भूः ॥ ८/३०
विलूनमन्यस्य शिरः सजोषं प्रोत्पत्त्य खात्संपतदिष्टपोषम् । ककोडुपे किम्पुरुषाङ्गनाभिः क्लृप्तावलोक्याथ च राहुणा भीः || ८ / ३४ ||
यहाँ युद्ध की भयानकता का वर्णन है जिससे सहृदय का "भय" स्थायि भाव अभिव्यक्त होकर भयानकरस के रूप में परिणत हो जाता है ।
वीभत्सरस
अहृद्य, अप्रिय और अनिष्ट पदार्थों के वर्णन से वीभत्सरस की सृष्टि होती है । जयोदय में कवि ने जयकुमार और अर्ककीर्ति के युद्धोपरान्त रणभूमि के जुगुप्सोत्पादक दृश्य का वर्णन कर वीभत्सरस की अनुभूति कराई है
-
अप्राणकैः प्राणभृतां प्रतीकैरमानि चाजिः प्रतता सतीकैः । अभीष्टसंभारक्ती विशालाऽसौ विश्वस्रष्टुः खलु शिल्पशाला ॥ ८/३७ ॥
पित्सत्सपक्षाः पिशिताशनायायान्तस्तदानीं समरोर्वरायाम् । चराश्च पूत्कारपराः शवानां प्राणा इवाभुः परितः प्रतानाः ॥ ८/३९ ॥
- युद्ध भूमि योद्धाओं के कटे हुए मस्तक, हाथ, पैर आदि अवयवों से आकीर्ण हो गई । वह ऐसी प्रतीत होती थी मानों विश्वकर्मा की शिल्पशाला हो । गिद्धों का समूह मृतकों का मांस खाने के लिए टूट पड़ रहा था । पंख फड़फड़ाते हुए गिद्ध ऐसे लगते थे जैसे योद्धाओं के फूत्कारपूर्वक निकलते हुआ प्राण हों ।
शान्तरस का स्वरूप
भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में शान्तरस का लक्षण इस प्रकार निरूपित किया है "अथ शान्तो नाम शमस्थायिभावात्मको मोक्षप्रवर्तकः । " "
अर्थात् आस्वाद्य अवस्था को प्राप्त शम स्थायिभाव शान्तरस कहलाता है । वह मोक्ष की ओर ले जाने वाला है ।
१. नाट्यशास्त्र, षठ अध्याय