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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
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है तो वह राजा अकम्पन से कहता है- हे राजन् ! सांप आया, सांप आया "यह सुनकर लोग भले ही आश्चर्य में पड़ जायें, किन्तु वह गरुड़ के मुंह में कमल की नाल के समान कोमल होता है)” (अर्थात् आप लोग भले ही अर्ककीर्ति से डरें, पर मैं नहीं डरता ) अब चिन्ता करने से क्या लाभ ? आप तो सावधानीपूर्वक सुलोचना की रक्षा करें। उस दुष्ट बन्दर ( अर्ककीर्ति) को बाँधकर शीघ्र ही आपके समक्ष उपस्थित करूंगा । आपको चिन्ता हो सकती है कि मेरे पास सैन्यबल नहीं है, पर आप यह स्मरण रखें कि बल की अपेक्षा नीति ही बलवान् होती है। हाथियों को नष्ट करने वाला सिंह भी अष्टापद की नीति के बल पर शीघ्र ही मारा जाता है। इस प्रकार कहते हुए जयकुमार आवेश से भर गया और युद्ध के लिए तैयार हो गया। कवि के शब्द इस प्रकार हैं -
पन्नगोऽयमिह पन्नगोऽन्तरे इत्यवाप्तबहुविस्मयाः परे ।
सन्तु किन्तु स पतत्पतेरलमास्य उत्पलमृणालपेशलः ॥ ७/७५ ॥
किं फलं विमलशील शोचनाद्रक्ष साक्षिकतया सुलोचनाम् । तं बलीमुखबलं बलैरलं पाशबद्धमधुनेक्षतां खलम् ॥ ७/७७ ॥
नीतिरेव हि बलाद् बलीयसी विक्रमोऽध्वविमुखस्य को वशिन् । केसरी करिपरीतिकृद्रयाद्वन्यते स शबरेण हेलया ॥ ७/७८ ॥
संप्रयुक्तमृदुसूक्तमुक्तया पद्मयेव कुरुभूमिभुक्तया ।
संवृतः श्रममुषा रुषा रयाच्चक्षुषि प्रकटितानुरागया || ७/८२ ॥
यहाँ जयकुमार के युद्धोत्साह को व्यक्त करने वाले वीरतापूर्ण वचन सामाजिक के उत्साह को उद्बुद्ध कर उसे वीररस की अनुभूति कराते हैं ।
भयानकरस
भयोत्पादक विभावों तथा भय व्यंजक अनुभावों और व्यभिचारी भावों का वर्णन कर कवि भयानकरस की अनुभूति कराता है ।
जयोदय में भयानक रस का यह प्रकरण अत्यन्त प्रभावशाली है । युद्धस्थल में योद्धाओं के विदीर्ण वक्षस्थल से मोतियों के हार टूट कर गिर जाते हैं। उन हारों के बिखरे मोती रक्त से लथपथ हो जाते हैं, जो यमराज के दाँतों के समान दिखायी देते हैं । उस युद्ध भूमि में एक योद्धा ने आवेश के साथ अपने प्रतिपक्षी योद्धा का सिर काट डाला जो तेजी से आकाश में उछला। वह नीचे गिरने ही वाला था कि वहाँ स्थित किन्नरियाँ उस सिर को