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________________ १६२ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन पिता अकम्पन के प्रति क्रोध से प्रज्वलित हो उठता है । उसकी क्रुद्ध दशा के वर्णन से रौद्ररस की अभिव्यक्ति हुई है · कल्यां समाकलय्यग्रामेनां भरतनन्दनः । रक्तनेत्रो जवादेव बभूव क्षीवतां गतः ॥ ७/१७ || दहनस्य प्रयोगेण तस्येत्थं दारुणेङ्गितः । दग्धश्चक्रितो व्यक्ता अङ्गारा हि ततो गिरः ॥ ७/१८ ॥ अहो प्रत्येत्ययं मूढ आत्मनोऽकम्पनाभिधाम् । नावैति किन्तु मे कोपं भूभृतां कम्पकारणम् ॥ ७/२० ॥ गाढमुष्टिर खङ्गः कवलोपसंहारकः । सम्प्रत्यर्थी च भूभागे हीयात् सत्त्वमितः कुतः ॥ ७/२१ ॥ राज्ञामाज्ञावशोऽवश्यं वश्योऽयं भो पुनः स्वयम् । नाशं काशीप्रभोः कृत्वा कन्यां धन्यामिहानयेत् ॥ ७/२२ ॥ - - दुर्मर्षण की वाणीरूप तेज मदिरा का पान कर अर्ककीर्ति के नेत्र लाल हो गये। उसकी वाक्रूप अग्नि के कारण अर्ककीर्ति धधक उठा । धधकने के कारण उसके मुख से अंगारवत् वचन निकलने लगे । वह बोला यह मूर्ख अकम्पन अपने नाम पर विश्वास करता है, किन्तु मेरे क्रोध को नहीं जानता, जो पर्वत से अचल राजाओं को कंपित करता है। यह मेरा खड्ग सुदृढ़ मुष्टि वाला है, यह यमराज की शक्ति की भी चिन्ता नहीं करता फिर इस पृथ्वी पर कोई शत्रु कैसे जीवित रह सकता है ? मेरी यह तलवार मेरे वश में है तथा राजाओं को मेरे आधीन करने वाली है । इसलिये यह स्वयं ही काशी नरेश अकम्पन का नाशकर भाग्यशालिनी कन्या सुलोचना को मेरे पास ले आवेगी । वीररस उत्साह से परिपूर्ण नायकादि उनके उत्साह को बढ़ाने वाले कारणों तथा उत्साह को अभिव्यक्त करने वाले अनुभावों और व्यभिचारी भावों के वर्णन से वीररस की अभिव्यक्ति होती है। जयोदय में युद्ध के सन्दर्भ में वीररस की व्यंजना हुई है। जब जयकुमार को दूत द्वारा यह समाचार मिलता है कि अर्ककीर्ति युद्ध करने का हठ छोड़ने के लिये तैयार नहीं
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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