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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
हास्यरस
हास्योत्पादक विभावों, अनुभावों एवं व्यभिचारिभावों के वर्णन से हास्य-रस की अभिव्यंजना होती है । जयोदय में हास्यरस की सृष्टि दो स्थलों पर हुई है । काशी नगरी में जयकुमार की बारात निकलती है तो वहाँ की स्त्रियाँ जयकुमार को देखने के लिए इतनी उतावली हो जाती हैं कि जल्दी-जल्दी में वे उल्टा-सीधा शृंगार कर लेती हैं और आभूषण भी उल्टे-सीधे पहन लेती हैं । कोई स्त्री कस्तूरी का लेप ललाट पर न कर आँख में कर लेती है, कोई अंजन को आँख के बदले कपोल पर आँज लेती है और कोई हार को गले में न पहन कर कमर में बाँध लेती है । नारियों का यह शृंगारविपर्यय हास्यरस की व्यंजना का हेतु बन गया है - .
दृशि चैणमदः कपोलके जनकं हारलताबलग्नके ।
रशना तु गलेऽवलास्विति रयसम्बोधकरी परिस्थितिः ॥ १०/५९
सुलोचना के विवाह में पंक्तिभोज के अवसर पर बारातियों और भोजन परोसने वाली स्त्रियों के बीच जो हास-परिहास होता है, वह भी हास्यरस का व्यंजक है ।
किसी बाराती युवक ने भोजन परोसने वाली एक युवती से कहा है - "मैं तेरे सम्मुख प्यासा हूँ"। युवती इसका अभिप्राय नहीं समझी और जल का कलश उठा कर ले आयी । युवती का यह भोलापन हास्यरस की झड़ी लगा देता है । देखिए -
तब सम्मुखमस्यहं पिपासुः सुदतीत्वं गदितापि मुग्धिकाशु ।
कती समुपाहरतु यावत् स्मितपुमेरियमञ्चितापि तावत् । १२/११९ रोखरस
नायकादि के क्रोध को प्रबुद्ध एवं उद्दीपन करने वाले कारणों और उसकी क्रुद्ध दशा के वर्णन से रौद्ररस की अभिव्यक्ति होती है ।
जयोदय के सातवें सर्ग में रौद्र रस की अभिव्यंजना हुई है। जब नायिका सुलोचना स्वयंवर सभा में उपस्थित अनेक राजकुमारों को छोड़कर जयकुमार का वरण कर लेती है . तो दुर्मर्षण इसे अपने स्वामी अर्ककीर्ति का अपमान समझ लेता है । वह अर्ककीर्ति को जयकुमार के प्रति उत्तेजित करता है । परिणामस्वरूप वह सुलोचना के पति जयकुमार एवं