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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन जब जयकुमार और सुलोचना को विवाह मण्डप में लाया जाता है तब वे एक दूसरे को सतृष्ण भाव से देखते हैं, वार्तालाप करते हैं और आनन्दित होते हैं । यहाँ सुलोचना के रूपसौन्दर और प्रेमी-युगल के रसात्मक अनुभावों के वर्णन से शृंगार-रस की धारा प्रवाहित होती है।
तरलायतवर्तिरागता साऽभवदवस्मरदीपिका स्वभासा । अभिभूततमाः समा जनानां किमिव स्नेहमिति स्वयं दधाना ॥१०/११४ दृक् तस्य चायात्स्मरदीपिकायां समन्ततः सम्प्रति भासुरायाम् । द्रुतं पतझावलिक्तदशा : नुपोगिनी नूनमनासमन्त् ॥१०/११५ अभवदपि परस्परप्रसादः पुनरुभयोरिह तोषपोषवादः । उपसि दिगनुरागिणीति पूर्वा रविरपिहाटवपुर्विदो विदुर्गा॥१०/११६ नन्दीश्वरं सम्पति देवदेव पिकाइना चूतकसूतमेव । वस्वौकसारामिवान सामीकृत्याशु सन्तं मुमुदे मृगाली ॥१०/११७ अध्यात्मवियामिव भव्यवृन्दा,
सरोजराजि मधुरां मिलिन्दः । प्रीत्या पपी सोऽपि तकां सुगौर
गात्री वा चन्द्रकलां चकोरः॥ १०/११८ - चंचल एवं विशाल नेत्रों वाली सुलोचना ज्यों ही मण्डप में प्रविष्ट हुई त्यों ही उसकी कान्ति से मण्डप जगमगा उठा । सौन्दर्य की राशि सुलोचना दर्शकों के लिए कामदेव की दीपिका सी प्रतीत हुई । जयकुमार की दृष्टि सुलोचना पर पड़ी और उसके अंगों से इस प्रकार लिपट गई जैसे दीपक पर पतंगों का समूह लिपट जाता है। वे एक दूसरे को देखने लगे । सुलोचना जयकुमार को देखकर इस प्रकार प्रसन्न हुई जैसे नन्दीश्वर को देखकर इन्द्र प्रसन्न होता है, आप्रमंजरी को देखकर कोयल और सूर्य को देखकर कमलिनी । जैसे मुक्ति के अभिलाषी अध्यात्मविद्या को, भ्रमर कमलपंक्ति को तथा चकोर चन्द्रकला को प्रेम से पीते है; उसी प्रकार जयकुमार ने मनोहरांगी सुलोचना को प्रेम से पान किया।