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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन १५९ नायिकादिंगत रति के निमित्त से आस्वाद्यमान हो जाने वाली सामाजिक की रति शृंगार है।' जयोदय में स्वयंवरोत्सव, विवाहोत्सव, सुरतक्रीड़ा, बिहार, पान-गोष्ठी आदि के सन्दर्भ में सम्भोग - शृंगार की सुन्दर व्यंजना हुई है । 1 स्वयंवर सभा में नायिका सुलोचना स्वयंवरण के लिए राजाओं का निरीक्षण करती है । क्रमशः एक एक राजा को देखती है और आगे बढ़ जाती है । जब जयकुमार के समीप पहुँचती है तो उसके रूपसौन्दर्य को देखकर मुग्ध हो जाती है। हृदय में उसके प्रति अनुराग उमड़ आता है । वह वरमाला पहनाना चाहती है किन्तु नारी सुलभ लज्जा उसे संकुचित करती है । उसके नेत्र भी बार-बार जयकुमार की रूपसुधा का पान करने के लिये ऊपर उठते हैं। किन्तु लज्जा के वशीभूत हो झुक जाते हैं । अन्ततः लज्जा पराजित हो जाती है और काम विजयी होता है । सुलोचना अपलक नेत्रों से जयकुमार का मुख निहारने लगती है। जयकुमार भी सरागभाव से सुलोचना की आँखों में आँखें डाल देता है और वे अपने हृद्गत अनुराग का आदान-प्रदान करने लगते हैं। सखी की प्रेरणा से सुलोचना काँपते हुए हाथों से जयकुमार के गले में वरमाला पहना देती है तब जयकुमार के स्पर्श से सुलोचना की देह रोमांचित हो उठती है मानों वर की शोभा देखने के लिये रोम-रोम उठकर खड़ा हो गया हो । यहाँ शृंगार के आलम्बन, उद्दीपन विभावों, अनुभावों और व्यभिचारी भावों के स्वाभाविक वर्णन से शृंगार रस छलक छलक पड़ता है । उदाहरण द्रष्टव्य है - हृद्गतमस्या दयितं न तु प्रयातुं शशाक सहसाऽक्षि । सम्यक् कृतस्तदानीं तयाऽक्ष्णिलज्जेति जनसाक्षी || ६ / ११८ भूयो विरराम करः प्रियोन्मुखः सन् खगन्वितस्तस्याः । प्रत्याययौ दृगन्तोऽप्यर्धपथाच्चपलताऽऽलस्यात् ॥ ६/११९ तस्योरसि कम्प्रकरा मालां बाला लिलेख नतवदना । आत्माङ्गीकरणाक्षरमालामिव निश्चलामधुना ॥ ६ / १२३ सम्पुलकिताङ्गयष्टेरुद्ग्रीवाणीव रोमाणि १. अभिनवभारती, पृष्ठ ५४३ बालभावाद्वरश्रियं रेजिरे तानि । द्रष्टुमुत्कानि ॥ ६/१२४
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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