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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन यद्यपि “निर्वेद" की गणना व्यभिचारी भावों में की गई है किन्तु भरत मुनि का यह मत है कि एक रस का स्थायिभाव दूसरे रस में व्यभिचारी भाव हो सकता है । अतः “निर्वेद" शान्तरस में स्थायिभाव है तथा अन्य रसों में व्यभिचारिभाव ।'
(३) तत्त्वज्ञानजन्य “निर्वेद" केवल स्थायिभाव ही नहीं है अपितु भरत मुनि का यह मत है कि रत्यादि स्थायिभावों का मर्दन करने वाला भी है । इसलिये वह रति आदि से भी अधिक स्थायिभाव वाला है । अतः तत्त्वज्ञानजन्य “निर्वेद" ही शान्तरस का स्थायिभाव है।' निर्वेद का बण्डन, शम की स्थापना
अभिनवगुप्त ने अभिनवभारती में इस मत का खण्डन किया है । वे निर्वेद को शान्तरस का स्थायिभाव नहीं मानते हैं अपितु "शम" को शान्तरस का स्थायिभाव स्वीकार करते हैं।
उनका कथन है कि तत्त्वज्ञानजन्य निर्वेद को शान्तरस का स्थायिभाव मानने से एकमात्र तत्त्वज्ञान के ही शान्तरस के विभाव होने का प्रसंग आता है । दूसरी बात यह है कि निर्वेद का अर्थ है समस्त विषयों से विरक्ति होना । इस प्रकार वैराग्य का ही दूसरा नाम “निर्वेद" है । वह तत्त्वज्ञान से उत्पन्न नहीं होता अपितु पहिले वैराग्य होता है फिर तत्त्वज्ञान। अतः तत्त्वज्ञान से उत्पन्न वैराग्य या “निर्वेद" को शान्तरस का स्थायिभाव नहीं माना जा सकता । फलस्वरूप शमरूप चित्तवृत्ति ही शान्तरस का स्थायिभाव है।'
“निर्वेद" को शान्तरस का स्थायिभाव क्यों नहीं माना जा सकता है ? शम को ही उसका स्थायिभाव क्यों मानना चाहिये, इसका सयुक्तिक प्रतिपादन काव्यप्रकाश के प्रदीप-टीकाकार ने किया है । वे कहते हैं कि शान्तरस की भावना तो अनिवार्य है, परन्तु १,२- एतत्तु चिन्त्यं कित्रामा सौ । तत्त्वज्ञानो स्थितिवेद" इति के चित् । तथाहि (9) दारिद्रयादिप्रभवो
यो निर्वेदः स ततोऽन्यहेतोस्तत्त्वज्ञानस्य वैलक्षण्यात् । स्थायिसञ्चारिमध्ये चैतदर्थमेवायं पठितः" । अन्यथा मांगलिको मुनिस्तथा न पठेत् । जुगुप्सां च व्यभिचारेण शृंगारे निषेधन्मुनिभविनां सर्वेषामेव स्थायित्वसञ्चारित्वेऽनुजानाति । तत्त्वज्ञानश्च निवेदः स्थारयन्तरोपमर्दकः । भाववैचित्र्यसहिष्णुभ्यो रत्यादिभ्यो यः परमस्थायिशीलः स एव हि स्थारयन्तरोपामुपमर्दकः ।।
__ - अभिनवभारती, षष्ठ अध्याय, पृष्ठ ६१४-६१५ ३. "इदमपि ---तत्त्वज्ञानजो निर्वेदोऽस्य स्थायीति वदता तत्त्वज्ञानमेवात्र विभावत्वेनोक्तं स्यात् ।
वैराग्यबीजादिषु कयं विभावत्वम् । तदुपायत्वादिति चेत्, कारणः, कारणेऽयं विभावताव्यवहारः स चारितप्रसङ्गवहः । किंतु अयं निर्वेदो नाम सर्वत्रानुपादेयता प्रत्ययो वैराग्यलक्षणः स च तत्त्वज्ञानस्य प्रत्युक्तोपयामि । विरक्तो हि तथा प्रयतते यथास्य तत्त्वज्ञानमुत्पद्यते । - अभिनवभारती, षष्ठ अध्याय, पृष्ठ ६१५