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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन के समाधान हेतु कवि ने कर्मफल एवं धर्मफल विषयक सूक्तियों का प्रयोग किया है -
' स्वयंवर मण्डप में राजकुमारी सुलोचना मालव देश के अधिपति से भी अनुराग नहीं करती । “जब दैव विपरीत हो जाता है तब पुरुषार्थ भी काम नहीं करता।" (किमु दैवे विपरीते पौरुषाणि अपि परुषाणि स्युः) -
निभृते गुणैरमुष्मिन् नाबन्धमवाप सापगुणदस्युः ।
किमु दैवे विपरीते परुषाण्यपि पौरुषाणि स्युः ॥ ६/९७
राजा जयकुमार अपनी पूर्वभव की प्रिया प्रभावती के विषय में विचार कर रहे थे कि अवधिज्ञानरूपी दूत ने आकर उनकी आकांक्षा पूर्ण कर दी । “पृथ्वी पर पुण्य के उदय से अभीष्ट सिद्धि स्वयमेव हो जाती है।" (जगत्यां सुकृतैकसन्ततः अभीष्टसिद्धिः स्वयमेव जायतेः)
तदेकसन्देशमुपाहरत् परमुपेत्य बोधोऽवधिनामकश्वरः ।
अहो जगत्यां सुकुतैकसन्ततेरभीष्टसिद्धिः स्वयमेव जायते ॥२३/३५
राजा जयकुमार और रानी सुलोचना अपने पूर्वजन्म में क्रमशः हिरण्यवर्मा और प्रभावती थे । दोनों ही जिनदीक्षा अंगीकार कर वन में तप कर रहे थे । इसके पूर्व भव के. शत्रु विद्युच्चोर ने जब दोनों को तप करते हुए देखा तो क्रोध से उन्हें जला दिया । वे समताभाव से देह का परित्याग कर स्वर्ग गये । "उत्तम तप से मनुष्य को उत्तम फल प्राप्त होता है।" (जनाः सत्तपसा महो व्रजन्तु) -
एतौ तपन्तौ समवाप्य वियुचौरो रुषा प्लोषितवान् परेयुः ।
भवान्तरारिः स्वरितौ च किन्तु महो जनाः सत्तपसा व्रजन्तु ॥ २३/७०
राजा जयकुमार की अनेक रानियाँ थीं फिर भी वह परिजनों तथा पुरजनों के समक्ष रानी सुलोचना के मस्तक पर पट्टरानी का पट्ट बाँधता है । “पाप कर्म का अन्त अर्थात् पुण्य का उदय होने पर पुरुषों के स्त्रियों के प्रति अनुकूल भाव होते हैं।" (दुरितान्तकाले रमिणां रमासु भाा भवन्ति) -
हेमाङ्गदादिष्वधुना स्थितेषु बबन्ध पट्ट पटुरेण तस्याः।
भाले विशाले दुरितान्तकाले भवन्ति भावा रमिणां रमासु ॥ २१/८२
बुद्धि आदि का महत्त्व प्रतिपादित करने वाली सूक्तियों के द्वारा कार्यविशेष में सफलता प्राप्ति के प्रति आश्वस्त किया गया है । यथा -
सम्राट् भरत के पुत्र अर्ककीर्ति स्वयंवर में सम्मिलित होने हेतु अपने मित्रों के साथ