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________________ १४६ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन तानवं श्रुतमुपैतु मानवः स्यान्न वर्त्मनि मुदोऽघसम्भवः । प्रीतमस्तु च सहायिनां मन आयमङ्गमिह सौख्यसाधनम् ॥ २ / ५६ न‍ के उपवन में आये हुए मुनि श्रावक धर्म का निरूपण करते हुए जयकुमार से कहते हैं -- प्राणीमात्र का कल्याण हो ऐसे दयामय परिणाम रखते हुए गृहस्थ को अन्न, वस्त्र आदि का दान करते रहना चाहिए । “सज्जनों का वैभव परोपकार के लिये ही होता है" ( सतां रसः परोपकृतये स्यात्) - - नष्टमस्तु खलु कष्टमङ्गिनामेवमार्द्रतर भावभङ्गिना । देयमन्नवसनाद्यनल्पशः स्यात् परोपकृतये सतां रसः ॥ २/९९ गृहस्थ का कर्तव्य है कि वह सर्वप्रथम ऐसे उपासकाध्ययन को पढ़े जिसमें अपने कुल के अनुरूप रीति रिवाज का वर्णन हो । क्योंकि "अपने घर की जानकारी न रखते हुए दुनियाँ को खोजना मूर्खता है।” (अनात्मसदनावबोधने जगतो विशोधने अज्ञता स्यात्) सम्पठेत् प्रथमतो ग्रुपासकामीतिगीतिमुचितात्मरीतिकाम् । अज्ञता हि जगतो विशोधने स्यादनात्मसदनावबोधने ॥ २ / ४५ अर्ककीर्ति के साथ होने वाले युद्ध के कारण राजा अकम्पन चिन्तित हैं । जयकुमार उन्हें सान्त्वना देते हुए कहते हैं -- हे वशी ! नीतिपथ से च्युत होने पर बल का क्या ? नीति के द्वारा ही हाथियों के समूह को नष्ट करने वाला सिंह भी शबर या अष्टापद के द्वारा शीघ्र मारा जाता है। अतएव " बल की अपेक्षा नीति ही बलवान होती है” (नीतिः एव बलाद् बलीयसी) -- नीतिरेव हि बलाद् बलीयसी विक्रमोऽध्वविमुखस्य को वशिन् । केसरी करिपरीतिकृद्रयाद्धन्यते स शबरेण हेलया ॥ ७/७८ नगर के उपवन में पधारे मुनिराज के दर्शन एवं धर्मोपदेश श्रवण हेतु जयकुमार उनके समीप जाते हैं । वे उसे समझाते हैं - बिना विचार किये सभी पर विश्वास करना स्वयं की ठगाना है । सब जगह शंका करने वाला कुछ नहीं कर सकता। इसलिए बुद्धिमान् व्यक्ति को सोच-विचार कर कार्य करना चाहिए। क्योंकि “अति सर्वत्र दुःखदायी होती है" ( अति सर्वतः कष्टकृद् भवति ) - विश्वविश्वसनमात्मवञ्चितिः शङ्किनः स्विदभिदः कुतो गतिः । योग्यतामनुचरेन्महामतिः कष्टकृद् भवति सर्वतो प्रति ॥ २/५१ मनुष्य के हानि-लाभ, मान-अपमान, जीवन-मरण, सिद्धि-असिद्धि आदि की घटनाओं
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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