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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन यह उत्प्रेक्षात्मक बिम्ब दर्शनीय है :
विजरत्तरुकोटरान्तराइववहिर्विपिनस्य वृहिणः ।
रसनेव निरेति भूपते रविपादाभिहतस्य नित्यशः ॥ १३/५०॥
-- हे भूपते ! इस तरु के कोटर से वनाग्नि की ज्वाला निकल रही है, जो ऐसी प्रतीत होती है मानों सूर्य के रश्मिरूपी पैरों से निरन्तर सताये गये इस बूढ़े वन की जीभ ही निकल रही है।
इस उत्प्रेक्षा में "सूर्य के रश्मिरूप पैरों से निरन्तर प्रताड़ित किये गये बढे वन की. जीभ निकलने का मानवीय बिम्ब" भयानक रस का व्यंजक है ।
निम्न श्लोक में "जलकुण्ड का नाभि में परिणत होने रूप" उत्प्रेक्षा का विधान हुआ है । यह उत्प्रेक्षा नायिका सुलोचना की नाभि की गहराई को ध्वनित करने का सशक्त बिम्ब है -
अस्या विनिर्माणविधावहुण्डं रसस्थलं यत्सहकारिकुण्डम् ।
सुचक्षुषः कल्पितवान् विधाता तदेव नाभिः समभूत्सुजाता ॥ ११/३०॥
-- ब्रह्मा ने सुलोचना का निर्माण करने के लिए जल का सुन्दर कुण्ड बनाया था। अब वही नाभि रूप में परिणत हो गया है ।
निम्न पद्य में पित्तज्वर से पीड़ित व्यक्ति की दुग्ध के प्रति अरुचि का दृष्टान्त दिया गया है । यह अर्ककीर्ति की अनवद्यमति मन्त्री के हितकारी वचनों के प्रति अरुचि के बिम्ब को ध्वनित करता है --
नानुमेने मनागेव तथ्यमित्यं शुचेर्वचः ।
क्रूरश्चक्रिसुतो यद्वत् पयः पित्तज्वरातुरः।। ७/४४ ॥
-- भरत चक्रवर्ती के क्रोधित पुत्र अर्ककीर्ति ने अनवद्यमति मन्त्री के सुन्दर, सारगर्भ एवं हितकारी वचनों को उसी प्रकार ग्रहण नहीं किया जैसे पित्तज्वर से पीड़ित व्यक्ति दूध को ग्रहण नहीं करता। लक्षणाश्रित बिम्ब महाकवि ने आने काव्य में लाक्षणिक प्रयोगों के द्वारा भी बिम्बों की रचना की है
अभ्याप सुस्नेहदशाविशिरं सुलोचना सोमकुलप्रदीपम् ।
मुखेषु सत्तां सुतरां समाप सदञ्जनं चापरपार्थिवानाम् ।। ६/१३१॥ -- सुलोचना ने उत्तम स्नेह की दशा से विशिष्ट सोमकुल के दीपक जयकुमार को