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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
किमु भवेद्विपदामपि सम्पदां भुवि शुचापि रुचापि जगत्सदाम्।
करतलाहतकन्दुकवत्पुनः पतनमुत्पतनं च समस्तु न:॥ २५/१०॥ , -- इस जगत् में सम्पत्ति और विपत्ति का सद्भाव और अभाव होता रहता है । प्राणी हर्ष और शोक से संयुक्त होते रहते हैं । जैसे हाथ के आघात से गेंद ऊपर-नीचे उठती तथा गिरती है, उसी तरह जीवों का उत्थान-पतन लगा रहता है ।
"करतलाहतकन्दुकवत्" उपमा से निर्मित बिम्ब संसार की परिवर्तनशीलता को सरलतया हृदयंगम करा देता है।
तेजोऽप्यूर्वं समवाप दीप इव क्षणेऽन्तेऽत्र जयप्रतीपः ।
निःस्नेहतामात्मनि संब्रुवाणस्तथापदे संकलितप्रयाणः॥ ८/७०॥ . -- जो अपने जीवन के विषय में स्नेहरहित हो गया है तथा विपत्ति के समय जिसने प्रयाण करने का संकल्प किया है, ऐसे अर्ककीर्ति ने बुझते दीपक के समान अपूर्व तेज प्राप्त किया।
__ "क्षणेऽन्ते दीपः इव" उपमा पराजय के पूर्व अर्ककीर्ति में आये उत्साह को दृश्यबिम्ब द्वारा भलीभाँति रूपायित कर देती है ।
अधोलिखित पद्य में "ज्ञानदीप" रूपक ज्ञान के सदसदविवेकजनक धर्म का द्योतन करने वाले दृश्य बिम्ब का सर्जक है -
स्नवदिहो न तथा न दशान्तरमपि तु मोहतमोहरणादरः ।
लसति बोपनदीप इयान्यतः विधिपतङ्गणः पतति स्वतः॥ २५/७०॥
-- विवेकी पुरुष ज्ञानरूपी दीपक से प्रकाशवान् रहता है । उसमें न राग होता है न द्वेष । वह मोहरूपी अन्धकार को दूर करने में प्रयत्नशील रहता है । उसके ज्ञानरूपी दीपक पर कर्मरूपी पतंगों का दल स्वयं गिर कर नष्ट हो जाता है ।
सर्प द्वारा पवन का पान किये जाने एवं केंचुली छोड़ने के रूपकात्मक बिम्ब द्वारा खड्ग की भयंकरता शत्रु के प्राणापहरण तथा स्वयश के प्रसारण रूप कार्यों की सुन्दर व्यंजना की गई है :
भुषगोऽस्य च करवीरो विषदसुपवनं निपीय पीनतया ।
दिशि दिशि मुञ्चति सुयशः कञ्चुकमिति हे सुकेशि स्यात् ॥ ६/१०६
-- हे सुकेशि ! इसके हाथ का खड्गरूपी सर्प वैरियों के प्राणरूपी पवन को पीकर परिपुष्ट हो जाता है और प्रत्येक दिशा में यशरूपी केंचुली छोड़ता है।