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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन ९९ - राजा जयकुमार की शेषनाग के समान लम्बी भुजाओं ने इन्द्र के ऐरावत को भी जीत,लिया था । उन भुजाओं के सहारे पृथ्वी सुदृढ़ बन गयी थी, मानों इसी सोच में शेषनाग सफेद पड़ गया है। अधोलिखित श्लोक में उत्प्रेक्षा नायिका की कटि की कृशता को प्रभावशालीरूप से व्यंजित करती है - वक्त्रं विनिर्माय पुरारमस्मिञ्चन्द्रभ्रमात्सङ्कुचतीह तस्मिन् । निजासने चाकुलतां प्रयाता चक्रे न वै मध्यमितीव धाता। ११/२५॥ - विधाता ने सर्वप्रथम सुलोचना के मुख का निर्माण किया । मुख में चन्द्रमा के भ्रम से उसका आसन (कमल) संकुचित हो गया । इसलिए आकुलित होकर ही मानों विधाता ने सुलोचना की कमर नहीं बनाई । अपहुति अपहृति का एक चामत्कारिक प्रयोग निम्न श्लोक में हुआ है - व्यञ्जनेष्विव सौन्दर्यमात्रारोपावसानको । विसर्गौ स्तनसन्देशात् स्मरेणोदेशितावितः ॥३/४९॥ - सुलोचना के शरीर में जो स्तनद्वय थे, वे वास्तव में स्तन नहीं थे अपितु सुलोचना के शरीर में सौन्दर्याधान पूर्ण हो चुका है, इसकी सूचना देने के लिए कामदेव ने दो विसर्ग रख दिये थे । ससन्देह कवि' इस अलंकार के द्वारा वस्तु के सौन्दर्यातिशय की प्रतीति कराई है । यथा अलिकोचितसीम्नि कुन्तला विबभूवुः सुतनोरनाकुलाः । सुविशेषक दीपसम्भवा विलसन्त्योऽजनराजयो न वा ॥१०/३३॥ - सुलोचना के ललाट प्रदेश पर संवारे गये केश कहीं शुभ तिलक रूपी दीपक से उत्पन्न कज्जलसमूह तो नहीं हैं ? यहाँ सुन्दरी सुलोचना के केशों में कज्जलराशि के सन्देह से केशों का कालिमातिशय अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से व्यंजित हुआ है । इसी प्रकार - शशिनस्त्वास्ये रदेषु भानां कचनिचयेऽपि च तमसो भानाम् । समुदितभावं गता शर्वरीयं समस्ति मदनैकमजरी ॥११/९३॥
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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