SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९८ . जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन प्राप्त किये । अर्थात् भगवान् के चरणों का सान्निध्य प्राप्त होने पर उनके नेत्रों से हर्षाश्रु निकलने लगे । वे अश्रुकण मोती सदृशं दिखाई दे रहे थे । निम्न श्लोक में चित्त पर मयूर के आरोप से राजा अकम्पन का हर्षातिरेक अनायास व्यंजित हो उठा है . श्रीपयोपरभराकुलितायाः संगिरा भुवनसंविदितायाः । काशिकानृपतिक्तिकलापी सम्मदेन सहसा समवापि ॥ ५/५५ - अत्यन्त सुन्दर एवं उन्नत पयोधरों वाली बुद्धिदेवी की वाणी सुनकर महाराजा अकम्पन का चित्तमयूर प्रसन्न हो गया। अधोलिखित पध में "बोधनदीप" एवं “मोहतम" रूपक ज्ञान एवं मोह के स्वरूप को अत्यन्त सरलता से हृदय की गहराई में उतार देते हैं - नवदिहो न तथा न दशान्तरमपि तु मोहतमोहरणादरः । लसति बोधनदीप इवान्यतः विधिपतङ्गगणः पतति स्वतः ॥ २५/६९ - विवेकी मनुष्य को किसी पदार्थ में न तो स्नेहरूपी राग होता है और न दशान्तर-राग के विपरीत द्वेष होता है । वह तो मोहरूप अन्धकार को नष्ट करने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहता है । ज्ञानरूप दीपक ही ऐसा है जिस पर कर्मरूपी पतंगे स्वतः गिरकर नष्ट हो जाते उतोता महाकवि ने जयोदय में भावात्मकता एवं चित्रात्मकता की सृष्टि, चरित्रचित्रण और वस्तु वर्णन को प्रभावी बनाने के लिए उपेक्षा का सुन्दर प्रयोग किया है। निम्न पद्य में प्रयुक्त उप्रेक्षा युद्ध की भयानकता का उन्मूलन करती है - निम्नानि गन्धर्वशः कृतानि पत्राव कौसुम्भकभावनानि । भृतानि रक्तर्यमराणिशान्तसंव्यानरागामिव स्म भान्ति ॥ ८/२७ - युद्धस्थल में घोड़ों के खुरों से जमीन में गड्ढे हो गये थे उनमें वीरों का रक्त भर गया था । वीरों के रक्त से परिपूर्ण गड्ढे ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों यमराज की रानियों के वस्त्रों को रंगने के लिए कुसुम्भ से भरे पात्र हों। राजा जयकुमार के पराक्रम एवं शक्तिशालिता की अभिव्यक्ति के लिए भी उठोक्षा का प्रयोग किया गया है - अहीनलम्बे भुगमञ्जुदण्ड विनिर्षिताखडलशुष्मिा । परायणायां भुवि भूपतेः स शुचेव शुक्लत्वमयाप शेषः ॥ १/२५
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy