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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन ९७ संसारी प्राणी सम्पत्ति के उपार्जन एवं विपत्तियों के परिहार हेतु भले ही प्रयत्न करें पर वह शुभोदय होने पर नारियल के अन्दर स्थित पानी के समान सम्पत्ति आती है तथा अशुभोदय होने पर गज द्वारा खाये हुए कैथ के फल के समान नष्ट हो जाती है । वृक्ष में लगे हुए नारियल में पानी आने में अधिक समय लगता है । सम्पत्ति के अर्जन में भी अधिक समय लगता है अतः 'लाङ्गलिकाफलवारिवद्” उपमान से धन-सम्पत्ति की कष्ट साध्यता व्यंजित होती है। जब हाथी कैथ के फल का भक्षण करता है तो उसका पाचन कुछ ही घण्टों में हो जाता है। धन सम्पत्ति भी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है । अतएव यहाँ “गजभुक्तकपित्थवत्" उपमान धनसम्पत्ति की क्षणभंगुरता का द्योतक है । समुद्र की उपमा ने जयकुमार के धीर स्वभाव को प्रभावशाली ढंग के व्यंजित किया है - संवहनपि गभीरमाशयमित्यनेन विषमेण सञ्जयः । केन वा प्रलयजेन सिन्धुवत् क्षोभमाप निलतोऽथ यो भुवः ॥ ७/७४ यद्यपि जयकुमार गम्भीर प्रकृति का था तथापि वह इस विषम प्रसंग ( अर्ककीर्ति का युद्धोन्मुख होना) में उसी प्रकार क्षुब्ध हो गया जैसे प्रलयकालीन पवन से समुद्र । समुद्र अत्यन्त गम्भीर और मर्यादाशील होता है। वह केवल प्रलयकालीन पवन से ही क्षुब्ध होता है । साधारण वायु उसे प्रभावित नहीं कर सकती । जयकुमार भी अत्यन्त धैर्यवान् था । साधारण प्रतिकूलतायें उसे क्षुब्ध नहीं कर सकती थीं । असाधारण. प्रतिकूल परिस्थिति में ही वह क्षोभ को प्राप्त हुआ था । इस प्रकार जयकुमार के लिए समुद्र की उपमा उसके अत्यन्त धीर स्वभाव की व्यंजक है । रूपक वस्तु के सौन्दर्य, भावातिरेक तथा अमूर्त तत्वों के अतीन्द्रिय स्वरूप को हृदयंगम बनाने के लिए कवि ने रूपक का सफल प्रयोग किया है । निम्न पद्य में "संसारसमुद्र" एवं "श्रीपादपादपपद" रूपक संसार की विशालता, गहनता, भयंकरता तथा भगवान् के चरणों की शान्तिप्रदायकता के सफल व्यंजक हैं - श्रीपादपादपपदं समवाप धीरः । तत्राऽऽनमँस्तु झरदुत्तरलाक्षिमत्त्वान्मुक्ताफलानि ललितानि समाप सत्त्वात् ॥ २६ / ६९ संसारसागरसुतीरवदादिवीर धीर वीर जयकुमार ने संसाररूपी सागर के उत्तम तट स्वरूप प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के चरणरूपी वृक्ष का शीतल स्थान प्राप्त किया । उन्हें बारम्बार नमस्कार किया । उन्होंने सात्विक भाव के कारण झरती हुई चंचल आँखों से मुक्त हो मनोहर मोती ·
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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