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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन जयोदय में अलंकार : अर्थालंकार
___ आचार्य ज्ञानसागर जी ने इनमें से अनेक अलंकारों का जयोदय में प्रयोग कर मानवचरित्र, वस्तुस्वरूप की विशेषताओं तथा मानवीय संवेगों की सुन्दर अभिव्यंजना की है। उनके प्रयोग से भाषा में वक्रोक्तिजन्य रोचकता तथा व्यंजकताजन्य चारुत्व भी आ गया है । कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं - उपमा
महाकवि ने वस्तु की स्वाभाविक रमणीयता, उत्कृष्टता एवं विशिष्टता, मनोभावों की उग्रता एवं चारित्रिक वैशिष्ट्य को चारुत्वमयी अभिव्यक्ति देने के लिये उपमा अलंकार का आश्रय लिया है । निम्न पद्य में केशों की स्वाभाविक मनोहरता का उन्मीलन करने में उपमा अलंकार ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया है :
वेणीयमेणीदृश एव भाषालेणी सदा मेकलकन्यकावाः ।
हरस्य हाराकृतिमादधाना यूनां मनोमोहकरी विधानात् ॥ ११/७०
- मृगनयनी सुलोचना की चोटी सुशोभित हो रही है । यह चोटी नर्मदा नदी की धारा के समान धुंघराली (काली तथा कुटिल) है । इसकी आकृति भगवान् शंकर के हार (सर्प) के समान है । यह तरुणों के मन को मोहित करती है।
यहाँ नर्मदा नदी एवं हर के हार के उपमानों ने केशों की कृष्णता, विशालता तथा कुटिलता को नेत्रों के सामने उपस्थित सा कर दिया है ।
____ आरे से लकड़ी को काटे जाने की उपमा अर्ककीर्ति की तीव्र मनोव्यथा को अनुभूतिगम्य बनाने में बड़ी सफल हुई है .
पथसमुयुतये यतितं मया परिवदिष्यति तत्सुदृगाशया ।
मम हृदं तदुदन्तमहो भिनत्ययि विभो करपत्रमिवेन्यनम् ॥ ९/३३
- हे प्रभो ! मैंने सन्मार्ग के प्रकाशनार्थ प्रयास किया, किन्तु लोग तो यही कहेंगे कि सुलोचना की प्राप्ति की आशा से युद्ध किया। यह बात मेरे हृदय को इस प्रकार विदीर्ण कर रही है जैसे आरा काष्ठ को ।
कवि ने उपमा द्वारा धन की कष्ट-साध्यता एवं क्षणभंगुरता सफलता पूर्वक व्यंजित की है -
ननु जनो भुवि सम्पदुपार्जने प्रयततां विपदामुत कर्जने। . मिलति लालिकाफलवारिवद् जति यद् गजमुक्तकपित्ववत् ॥ २५/११