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________________ १०० जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन ___ - इस (सुलोचना) के मुख में चन्द्रमा की शोभा है, दाँतों में नक्षत्रों की तथा केशपाश में अन्धकार की । यह साक्षात् रात्रि है या कामदेव की पुष्पकलिका ? यह सन्देह सुलोचना के मुख एवं दाँतों के सौन्दर्यातिशय का तथा केशों के कालिमातिशय का अद्वितीय व्यंजक है । निम्न श्लोक में भी सुलोचना के सौन्दर्यातिशय की प्रभावशाली व्यंजना हुई है - चारुर्विषोः कारुरुतामृतात्मा स्वारुक् सदा रूपनिरुतात्मा । पद्मोदरादात्ततनुः शुभाभ्यां विभाजते मादर्वसौष्ठवाभ्याम् ॥११/९२॥ - यह (सुलोचना) चन्द्रमा की मनोहर शिल्पक्रिया है अथवा सदा दिव्यरूप वाली सुन्दर देवी है या सौन्दर्य समुद्र की आत्मा ? यह शुभसूचक सुन्दरता तथा कोमलता के कारण ऐसी प्रतीत होती है जैसे इसका शरीर कमल के उदर से उत्पन्न हुआ है । समासोक्ति इसमें प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप किया जाता है । जड़ और तिर्यंचों पर मानव व्यापारों का आरोप उनको मानव हृदय के और भी समीप ले आता है तथा भावों के बोध में अधिक तीव्रता पैदा कर देता है । कवि ने शीघ्रता से तीव्र भावबोध कराने में समासोक्ति का प्रयोग किया है । युद्ध हेतु तत्पर जयकुमार के प्रति कवि की उक्ति है - सोमसूनुरुचितां धनुर्लतां सन्दधौ प्रवर इत्यतः सताम् । श्रीकरे स खलु वाणभूषितां शुद्धवंशजनितां गुणान्विताम् ॥ ७/८३॥ - जयकुमार सज्जन पुरुषों में श्रेष्ठ माना जाता था । उसने कर में शुद्धवंशोत्पन्न, गुणान्वित एवं समुचित बाण से विभूषित धनुर्लता को ग्रहण किया । धनुर्लता के शुद्धवंशजनिता, गुणान्विता एवं बाणभूषिता विशेषणों से पवित्र कुलोत्पन्न, रूप सौन्दर्यादि गुणों से युक्त तथा विवाह दीक्षा से युक्त युवती की प्रतीति होती है । धनुर्लता पर नायिका का आरोप होने से वह शृंगार रस का विभाव बन गयी है और वर्णन रसात्मक हो गया है। व्यतिरेक अलंकार महाकवि ने व्यतिरेक अलंकार का प्रयोग कर वस्तु के अद्वितीय सौन्दर्य और महिमातिशय की अभिव्यंजना की है । निम्न श्लोक में व्यतिरेक के द्वारा जयकुमार के लोकोत्तर रूप सौन्दर्य की व्यंजना की गई है . इहाङ्गसम्भावितसौष्ठवस्य श्रीवामरूपस्य वपुश्च पस्य । अनङ्गतामेव गता समस्तु तनुः स्मरस्यापि हि पश्यतस्तु ॥ १/४६॥
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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