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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन बाणों के सघन प्रहार की अभिव्यंजना के लिए "शरौघं ववृषुः" (बाणों की वर्षा की) मुहाघरा कितना प्रभावोत्पादक है । कुरक्षणे स्मोयतते मुदा सः सुरक्षणेभ्यः सुतरामुदासः। बबन्ध मामुष्य पदं रुषेव कीर्तिः प्रियाऽवाप दिगन्तमेव ॥१/४५॥ -- राजा जयकुमार देवताओं द्वारा मनाये जाने वाले उत्सवों से भी उदास रह कर पृथ्वी के संरक्षण में उद्यत रहता था । इसलिए लक्ष्मी उसके पैरों को चूमती थी और उसकी प्रिय कीर्ति संसार में दिगन्त-व्यापिनी हो गई । ... "मा अमुष्य पदं बबन्ध" (लक्ष्मी पैरों को चूमती थी) अपरिमित वैभवशालिता की प्रतीति कराने वाले इस मुहावरे ने अभिव्यक्ति में चार चाँद लगा दिये हैं। वक्रविशेषणात्मक मुहावरे - जिस मुहावरे में विशेष्य के साथ अनुपपद्यमान विशेषण का प्रयोग होता है, वह कविशेषणात्मक मुहावरा कहलाता है । कवि ने इस प्रकार के मुहावरों द्वारा पात्रों के मन की मार्मिक स्थितियों, उनके अंगों से अभिव्यक्त होने वाले मार्मिक भावों, उनके सौन्दर्य की अपूर्व मोहकता तथा वस्तुओं के गुणावगुणात्रिश्य की अभिव्यक्ति की है - . विनयभूदुन्नतवंशः सुलक्षणोऽसौ विलक्षणोक्ततनुः । , विलसति च नलसदास्यो लावण्यासोऽपि मधुरतनुः ॥६/५४ ॥ यह राजा विनयवान् है, उन्नतवंश का है । शुभ लक्षणों से युक्त है, चतुर है तथा कमल के समान मुखाकृति से सुशोभित है। लावण्य का गृह होकर भी मधुर शरीर वाला है। "मधुरतनुः" मुहावरे के प्रयोग से शारीरिक सौन्दर्य की आह्लादकता अनुभूतिगम्य हो उठी है। चित्रमित्तिषु समर्पितदृष्टी तत्र शश्वदपि मानवसृष्टी । निर्निमेषनयनेऽपि च देवव्यूह एव न विवेचनमेव ॥ ५/१९ -- स्वयंवर सभा की मित्तियों पर चित्रकला की गई थी। उसे एकटक दृष्टि से मानव देख रहे थे, जिससे निर्निमेष नेत्रों वाले देवगण एवं मानव समूह में भेद करना कठिन हो गया। "समर्पितदृष्टी" प्रयोग में चित्रकला की उत्कृष्टता एवं मोहकता का आभास कराने की अद्भुत क्षमता है। पुर्ण प्रेषितवान् पुनर्मुदुक्शा काशीविशामीश्वशरः ॥८/८६ ॥ पूर्वा
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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