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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन सौन्दर्यातिशय एवं प्रभाव के अतिशय की पुष्टि की है । पात्रों के चारित्रिक वैशिष्ट्य, उनके मनोभाव एवं मनः स्थितियों की सफल अभिव्यक्ति संभव हुई है । उदाहरणार्थ -
शौर्यप्रशस्तौ लभते कनिष्ठां श्रीचक्रपाणेः स गतः प्रतिष्ठाम् ।
यस्यास्तां निग्रहणे च निष्ठा मता सतां संग्रहणे घनिष्ठा ॥१/१६॥
-- भरत चक्रवर्ती से प्रतिष्ठा प्राप्त राजा जयकुमार शूरवीरता में कनिष्ठका (कानी/छिंगुरी उंगली) पर गिना जाता है । वह दुष्टों के निग्रह एवं शिष्टों का संग्रह करने में तत्पर रहता था।
__ यहाँ जयकुमार के वीरों में सर्वश्रेष्ठ एवं अग्रणी होने की अभिव्यंजना "शौर्यप्रशस्ती लभते कनिष्ठां" (वीरों की गणना को छिंगुरी पर गिना जाना) मुहावरे के प्रयोग से संभव हो सकी है।
किमधुना न चरन्त्यसवश्वराः स्वयमिताः किमु कीलनमित्वराः ।
रुदति मे हृदयं सदयं भक्तुदति चात्मविषातकथाश्रवः ॥९/७
-- इस समय मेरे चर प्राण क्यों नहीं निकलते ? वे कीलित क्यों हो गये ? यही मोच कर मेरा हृदय रो रहा है । स्वयं की निरादर कथा मुझे पीड़ा दे रही है।
युद्ध में पराजित अर्ककीर्ति की मानसिक पीड़ा कितनी तीव्र थी, इसकी अनुभूति "हृदयं रुदति" मुहावरे से ही संभव थी।
वेशवानुपजगाम जयोऽपि येन सोऽथ शुशुभेऽभिनयोऽपि ।
लोकलोपिलवणापरिणामः स स्म नीरमीरपति च कामः ॥५/२६ .
-- जिनका सौन्दर्य अनुपम था ऐसे राजा जयकुमार भी सज-धज कर आये । उनके आने से सभा जगमगा उठी । उनके आगे कामदेव भी पानी भरता था ।
जयकुमार के अनुपम सौन्दर्य और प्रभावशाली व्यक्तित्व की मनोहारी अभिव्यक्ति के लिए "कामः नीरमीरयति" (उसके सामने कामदेव भी पानी भरता है) से सुन्दर उक्ति और कोई नहीं हो सकती थी।
परे रणारम्भपरा न यावद् बभुश्व काशीशसुता यथावत् ।
निष्कटुमागत्यतरा मितोऽचं हेमाङ्गदाया बवृषुः शरोपम् ॥ ८/५३ ॥, .. -- जब तक शत्रु युद्ध के प्रारम्भार्थ जयकुमार के समीप नहीं पहुंच पाये इसके पहले ही काशीराज के पुत्र हेमांगद आदि ने जयकुमार पर आये उपद्रव को दूर हटाने के लिए वाणों की वर्षा कर दी।