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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन - काशी नरेश ने अपनी पुत्री की ओर मृदुदृष्टि से देखा । स्नेहपूर्वक देखने के भाव को "मृदुदृशा प्रेक्षितवान् "उक्ति अत्यन्त रमणीयता से व्यंजित करती है। निदर्शनात्मक मुहावरे निदर्शना अलंकार रूढ़ होने पर निदर्शनात्मक मुहावरा बन जाता है । जहाँ एक कार्य की उपमा दूसरे कार्य से दी जाती है, वहां निदर्शना अलंकार होता है । इससे उपमेयभूत कार्य की दुष्करता, निष्फलता, संकटास्पदता, असाध्यता, असंभवता आदि के स्वरूप की व्यंजना अत्यन्त प्रभावपूर्ण एवं चित्रात्मक रीति से हो जाती है । कवि ने ऐसे मुहावरों के प्रयोग द्वारा पात्रों की प्रवृत्तियों, चरित्रों तथा उनके उत्कर्ष का सफलतापूर्वक सम्प्रेषण किया है। उदाहरणार्थ जयमुपैति सुभीरुमतल्लिकाऽखिलजनीजनमस्तकमल्लिका । बहुषु भूपवरेषु महीपते मणिरहो चरणे प्रतिबध्यते ॥ ९/७७ ॥ - हे राजन्! बड़े-बड़े राजाओं के होते हुए भी समस्त स्त्री समाज की शिरोमणि, श्रेष्ठतम तरुणी सुलोचना जयकुमार को प्राप्त हो गई है । आश्चर्य है कि मणि पैरों से बाँध दी गई है। कार्य के अनौचित्य का स्वरूप (स्तर) हृदयंगम कराने के लिए "मणिः चरणे प्रतिबद्ध्यते" से अधिक उपयुक्त एवं रमणीय उक्ति नहीं हो सकती थी। ___ नीतिमीतिमनयो नयायं दुर्भातः समुपकर्षति सपम् । उत्सुकं शिशुवदात्मनोऽशुभ योऽति वाञ्छति हि वस्तुतस्तु भम् ॥७/७९ - यह दुर्मति अर्ककीर्ति नीति का उल्लंघन करता हुआ जली लकड़ी पकड़ने वाले शिशु के समान स्वयं अपना अकल्याण करना चाहता है । यह उस बालक जैसा है जो दिन के प्रकाश में वास्तविक नक्षत्रों को देखना चाहता है । "अहि वाञ्छति हि वस्तुतस्तु भम्" (दिन में तारे देखने की इच्छा करता है) प्रयोग इच्छा के अनौचित्य की पराकाष्ठा घोतित करने में बेजोड़ है। अनुभावों के द्वारा भाव व्यंजना एक प्रचलित साहित्यिक परिपाटी हैं। यह प्रवृत्ति रूढ़ होकर अनुमावालक मुहावरों के रूप में प्रतिष्ठित हुई है। इन मुनवरों से मनःस्थितियों
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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