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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
चले आने से देश का मरालमुक्त सरोवर की भाँति शोभाहीनता को प्राप्त हो जाना प्रभावपूर्ण ढंग से प्रतीति के विषय बन गये हैं ।
क्षणरुचिः कमला प्रतिदिङ्मुखं सुरधनुश्चलमैन्द्रियकं सुखम् ।
विभव एष च सुप्तविकल्पवदहह दृश्यमदोऽखिलमध्रुवम् ॥ २५ / ३ ॥ धन-सम्पत्ति बिजली की चमक के समान क्षणस्थायी है, इन्द्रियसुख इन्द्रधनुष के समान चंचल हैं और पुत्र-पौत्रादिरूप यह वैभव स्वप्न के समान असत्य है । अहो ! यह समस्त दृश्यमान् जगत् अनित्य है ।
इस पद्य में प्रयुक्त "क्षणरुचिः”, “सुरधनुश्चलम्,” "सुप्तविकल्पवद्" तथा "अध्रुवम्” विशेषणों से लक्ष्मी, इन्द्रियसुख वैभव तथा दृश्यमान् जगत् के क्षणभंगुर एवं असत्य स्वरूप की प्रतीति होती है; जिससे ये पदार्थ वैराग्य के हेतु बनकर शान्तरस की रंजना में समर्थ हो गये हैं ।
संवृत्तिवक्रता
जहाँ वस्तु
के उत्कर्ष, लोकोत्तरता या अनिर्वचनीयता की प्रतीति कराने के लिए अथवा लोकोत्तरता की प्रतीति को सीमित होने से बचाने के लिए सर्वनाम से आच्छादित कर उसका द्योतन किया जाता है, वहाँ संवृतिक्कता होती है । ' ध्वनिकार ने इसे सर्वनाम व्यंजकत्व कहा है । यह असंलक्ष्यक्रमव्यंग्यध्वनि का आधार है। जयोदय के निम्न पद्यों से कवि की संवृतिवक्रता का चमत्कार प्रस्फुटित होता है -
(क)
याम एव सदसीह परन्तु भिन्नभिन्नरुचिमद् गुणतन्तुः ।
सत्तनुर्ननु परं जनमञ्चेत् का दशा पुनरहो जनमञ्चे || ४/२८
सुलोचना के स्वयंवर प्रसंग में आया हुआ राजकुमार अर्ककीर्ति सोचता है- "अब आया हूँ, तो स्वयंवर सभा में जाऊँगा ही । किन्तु लोगों के भाव तो भिन्न-भिन्न रुचि के हुआ करते हैं । सो यदि सुलोचना मुझे छोड़कर दूसरे का वरण कर लेगी तो उतने जनसमूह के बीच मेरी क्या दशा होगी ?
सुलोचना के द्वारा किसी और का वरण कर लिये जाने पर, अर्ककीर्ति की जो घोर अपमानास्पद स्थिति होगी, उसे यहाँ "का" सर्वनाम द्वारा संवृत किया गया है, इसीलिए उसकी घोरता के उत्कर्ष का द्योतन सम्भव हुआ है ।
9. यत्र संक्रियते वस्तु वैचित्र्यविवक्षया ।
सर्वनामादिभिः कश्चित् सोक्ता संवृतिवक्रता । वक्रोक्तिजीवित - २/१६
२. सुप्तिदचनसम्बन्धैस्तथा कारक शक्तिभिः ।
कृत्तद्धितसमासैश्च द्योत्योऽलक्ष्यक्रमः क्वचित् ॥ ध्वन्यालोक, ३ / १६