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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन (ब) प्रजायाः प्रत्युपायेऽस्मिन्नपायमुपपयते । भवादृशो प्रमादन्यः प्रत्ययः को निरत्ययः ॥ ७/३८ - राजकुमार अर्ककीर्ति का अनवधमति मन्त्री उसे समझाते हुए कहता है - "हे कुमार ! आप जैसे पुरुष भी यदि प्रजा की भलाई के इस कार्य में बुराई समझें,तो इसमें भ्रम के सिवा दूसरा क्या कारण हो सकता है ? यहाँ "भवादृशः" सर्वनाम से आच्छादित कर देने पर अर्ककीर्ति की सातिशय विवेकशीलता व्यंजित हो जाती है । वृत्तिवैचित्र्यवक्रता व्याकरण शास्त्र में समास, तद्धित, सुब्धातु आदि को वृत्ति कहते हैं । जहाँ किसी विशेष समासादि के प्रयोग से रचना (भाषा) में विशेष सौन्दर्य आ जाता है, वहाँ वृत्तिवैचित्र्यकाता कहलाती है। यह भी असंलक्ष्यक्रमव्यंग्यध्वनि का हेत है। जयोदय के निम्न उदाहरण में इसका आस्वादन किया जा सकता है - (क) यमय बेतुमितः प्रविचार्यते स जय आश्वपि दुर्जय आर्य ते । तरुणिमा क्षयदो यदि जायते जरसि किं पुनरत्र सुखायते । ९/२२ - दूसरी ओर मैं (अर्ककीर्ति) सोचता हूँ कि जयकुमार को जीत लें । यदि आज उसे मैं अपनी युवावस्था में न जीत पाया तो और कब जीत सकूँगा ? यदि यौवन में ही क्षयरोग लग जाये तो वृद्धावस्था में उससे मुक्त होकर सुखी होने की आशा व्यर्थ है। यहाँ तारुण्य, तरुणत्व, तरुणता की अपेक्षा इमनिच् प्रत्यान्त "तरुणिमा" शब्द के प्रयोग से विशेष चारुत्व आ गया है । यौवन में सुकुमारता और लालित्य की प्रतीति होती है । इमनिच् तद्धित प्रत्यय है, अतः यहाँ तद्धितवृत्तिवैचित्र्यवकता है । (ख) कलशोत्पत्तितादात्म्यमितोऽहं तव दर्शनात् । आगस्त्यक्तोऽस्मि संसारसागरश्चुलुकायते ॥ १/१०३ - हे भगवान ! आपके दर्शन से आज मैं उत्तम सुख का अनुभव करता हुआ पापमुक्त हो गया हूँ । अब मेरे लिए यह संसारसागर चुल्लूभर प्रतीत होता है, जैसा कि अगस्त्य ऋषि के लिए समुद्र चुल्लू के बराबर हो गया था । इस पद्य में "चुलुकायते" क्रिया के प्रयोग से भाषा में सौन्दर्य आ गया है । यह क्रिया “चुलुका" सुबन्त में आचारार्थ “क्यङ्' प्रत्यय के प्रयोग द्वारा धातु बनाकर निष्पन्न की गई है, अतः यहाँ सुब्बातवृत्तिवैचित्र्यवक्रता है। १. अव्ययीभावमुख्यानां वृत्तीनां रमणीयता । यत्रोल्लसति सा ज्ञेया वृत्तिवैचित्र्यवक्रता ।। वक्रोक्तिजीवित, २/१९
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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