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जयोदय महाकाव्य का शैलावैज्ञानिक अनुशीलन
पाश्चात्य आलोचक माइकेल रावर्ट्स का कथन है -- "Deep and sublte feeling can seldom be obtained by direct
methods.
___ अर्थात् स्पष्ट कथन द्वारा गम्भीर एवं सूक्ष्म भावनाओं का उद्बोधन प्रायः असम्भव
जो तथ्य गूढ़ शब्दों से प्रस्फुटित होता है, वह ऐसा लगता है जैसे हमारी ही अनुभूति से प्रसूत हुआ हो, इसलिये वह हमें भावोद्वेलित करने में समर्थ होता है ।
इन गुणों के आधार पर व्यंजकता काव्यभाषा का प्राण है | व्यंजकता के प्रकार
व्यंजकता दो प्रकार की होती है - अभिधाश्रित और लक्षणाश्रित । जहाँ शब्द का वाच्यार्थ संगत (उपपन्न) होते हुए भी अभिप्रेत (विवक्षित) नहीं होता, अपितु अन्य अर्थ की प्रतीति का साधन होता है, वहाँ शब्द में अभिधाश्रित व्यंजकता होती है । जहाँ शब्द का वाच्यार्थ असंगत होता है, तो भी जिस वस्तु पर वह आरोपित किया जाता है, उसके स्वसदृश धर्म के सूक्ष्म वैशिष्ट्य को प्रकाशित करने में सहायक होता है, वहां शब्द में लक्षणाश्रित व्यंजकता होती है । इसे अत्यन्ततिरस्कृत वाच्यध्वनि कहते हैं । कुन्तक ने इसे उपचारवक्रता नाम दिया है । जहाँ रुढ़ि शब्द (पर्यायवाचियों का आधारभूत मूल शब्द) का सामान्य वाच्यार्थ वाक्य(व्याकरण) की दृष्टि से संगत होते हुए भी तात्पर्य की दृष्टि से संगत (उपयुक्त) नहीं होता, इसलिये तात्पर्योपपत्ति के लिए सविशेष वाच्यार्थ (वाच्यार्थ के विशेष स्वरूप) का द्योतन करता है वहां भी लक्षणाश्रित व्यंजकता होती है । इसे आनन्दवर्धन ने अर्थान्तरसंक्रमित वाच्यध्वनि तथा कुन्तक ने रूदिवैचित्र्यवक्रता कहा है ।
१. Critique of Poetry. Page - 32-33 २. "एवं लक्षणामूलं व्यंजकत्वमुक्तम्' काव्यप्रकाश ४/१८ ३. (क) "योऽर्थ उपपद्यमानोऽपि तावतैवानुपयोगाद्धर्मान्तरसंवलनया अन्यतामिव गतो लक्ष्यमाणोऽनुगतधर्मी सूत्रन्यायेनास्ते स रूपान्तरपरिणत उक्तः ।"
ध्वन्यालोकलोचन, २/१ (ख) "इत्यत्र रामशब्दः। अनेन हि व्यङ्ग्यधर्मान्तरपरिणतः संज्ञी प्रत्याय्यते, न संज्ञिमात्रम्।" ध्वन्यालोक, २/१ (ग) "कमलशब्द इति। लक्ष्मीपात्रत्वादिधर्मान्तरशतचित्रता परिणतं संज्ञिनमाहतेन शुद्धेऽर्थे मुख्य बाधानिमित्तं
तत्रार्थे तद्धर्मसमवायः । तेन निमित्तेन रामशब्दो धर्मान्तरपरिणतमर्थं लक्षयति" । ध्वन्यालोकलोचन, २/१ (घ) अनुपयोगात्मिका च मुख्यार्थवाधानास्तीति लक्षणामूलत्वादविवक्षितवाच्यभेदः तास्योपपन्नैव शुद्धार्थस्याविवक्षणात् ।"
वही, २/१