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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन संवृत्याभिधान (संवृति द्वारा सम्प्रेषण) का फल है कथन में मौन्दर्य का उन्मेष । इसे लोचनकार अभिनवगुप्त ने “संवृत्यति गोप्यमानतया लब्धसौन्दर्य इत्यर्थः' इन शब्दों में स्पष्ट किया है। , आनन्दवर्धन ने भी कहा है -. "मारभूतो ह्यर्थः स्वशब्दानभिधेयत्वेन प्रकाशितः सुतरामेव शोभामावहति। अर्थात् सारभूत अर्थ जब स्पष्ट शब्दों का प्रयोग न करते हुए व्यंजित किया जाता है, तब अत्यन्त मनोहर लगता है । “वस्तुचारुत्वप्रतीतये स्वशब्दानभिधेयत्वेन यत्प्रतिपिपादयितुमिप्यते तद् व्यङ्ग्यम्"३ इन शब्दों में भी उन्होंने यही बात कही है। ध्वन्यालोककार ने यह भी कहा है कि व्यंजकता के स्पर्श से अर्थालंकारों में भी रमणीयता (हृदयालाादकता) आ जाती है। एक काव्यमर्मज्ञ ने व्यंजकता की महिमा का वर्णन निम्न शब्दों में किया है । अनुद्दष्टः शब्दैरथ च घटनातः स्फुटतरः, पदानामात्मा रमयति न तूत्तानितरराः । यथा दृश्यः किञ्चित् पवनचलचीनांशुकतया, कुचाभोगः स्त्रीणां हरति न तथोन्मुद्रितमुखः ॥ अर्थात् स्पष्ट शब्दों में कही गई वात उस प्रकार आनन्दित नहीं करती, जिस प्रकार आवृत करके अवभामित की गई बात करती है । स्त्रियों के खुले हुए स्तन मन को उतना नहीं मोहते, जितने आवृत स्तन आंचल के उड़ने में प्रकट हो जाने पर मोहने हैं । इस प्रकार यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि व्यंजकता के द्वारा भाषा में एक रहस्यमय आकर्षण, एक अद्भुत रोचकता आ जाती है । दूसरी बात यह है कि कोई भी वात ग्पष्ट शब्दों में अभिहित हाने पर मन को उतना प्रभावित नहीं करती, उतना 'भाबोलित नहीं करती. जितना गृढ़ शब्दों में प्रफुटित होने पर करती है। १. ध्वन्यालोक लोचन. ३/४२ २. ध्वन्यालोक ४५ की वृत्ति ३. वही, ४/पृष्ट - ४६६ ४. वाच्यालङ्कारखगों य-ध्वन्यालोक. ३/३६ ५. साहित्यदर्पण. ४/१४ विचार्गवमर्श टीका मे उदधृत, पृष्ट - ३२५
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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