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________________ तृतीय अध्याय | वक्रता, व्यंजकता एवं ध्वनि भाषा की व्यंजकता ही काव्य का प्राण है । यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जो वस्तु संवृत्त होती है, रहस्य के आवरण में छिपी रहती है, वह जिज्ञासा उत्पन्न करती है, उत्सुकता जगाती है और इस कारण आकर्षक एवं रोचक बन जाती है । जो वस्तु अनावृत होती है, उसके प्रति आकर्षण उत्पन्न नहीं होता । किसी रमणी का मुख पूंघट में छिपा हो तो देखने की उत्सुकता जगाता है, और यदि खुला हो तो उत्सुकता के लिए कोई अवकाश नहीं रहता । कथन शैली के विषय में भी यह बात सत्य है । जो बात स्पष्ट शब्दों में कही जाती है उसमें वैसी रोचकता एवं प्रभावोत्पादकता (भावोद्बोधकता) नहीं होती जैसी संकेतात्मक (लाक्षणिक एवं व्यंजक) भाषा में कहने पर होती है । काव्याचार्य आनन्दवर्धन ने स्पष्ट कथन द्वारा नहीं अपितु संवृत्ति द्वारा प्रतीत कराये गये अर्थ को ध्वनिकार्य की संज्ञा दी है और इस व्यंजक शैली को कथन में चारुत्व' एवं नावीन्य' का संचार करने वाला बतलाया है - यस्बिरसो वा भावो वा तात्पर्येण प्रकाशते, संवृत्याभिहितौ वस्तु यत्रालङ्कार एव वा । काव्यावनिष्पनिळग्यप्राधान्यकनिबन्धनः , सर्वत्र तत्र विमी शेयः सहदयैर्वनैः॥ अर्थात् जहाँ रस और भाव तात्पर्य रूप से प्रकाशित होते हैं तथा वस्तु एवं अलंकार संवृत (आवृत) करके सम्प्रेषित किये जाते हैं, वहाँ व्यंग्यार्थ की प्रधानता होती है, उसे धनिकाव्य कहते हैं । १. उक्त्यन्तरेणाशक्यं यत्तद्यारुत्वं प्रकाशयन् । शब्दो व्यजकतां विभ्रद् ध्वन्युक्तेर्विषयी भवेत् ।। ध्वन्यालोक, १/१५|| २. ध्वनेर्यः सगुणीभूतव्यंप्यस्यांध्वा प्रदर्शितः, अनेनानन्त्यमायाति कवीनां प्रतिभागुणः । अतो गन्यतमेनापि प्रकारेण विभूषितः, वाणी नवत्वमायाति पूर्वार्थान्वयवत्यपि ।। वही, ४/१-२ ॥ ३. ध्वन्यालोक ३/४२ की वृत्ति
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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