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________________ ५० को सान्त्वना देता है। उससे पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनाने के लिए कहता है । सुलोचना ने बतलाया कि वे पहले सुकान्त और रतिवेगा के रूप में जन्मे थे । वहाँ उनका शत्रु भ्ःचदेव था । इसके बाद रतिवर और रतिवेगा कपोत युगल बने । यहाँ भवदेव का जीव बिलाब के रूप में उनका शत्रु बना । अनन्तर क्रमशः हिरण्यवर्मा, प्रभावती और शत्रु विद्युच्चोर, स्वर्ग में देव-देवी तथा उनका वैरी अब भीम केवली बने हैं । स्वर्ग के देव देवी ही वर्तमान में जयकुमार और सुलोचना के रूप में है । पूर्वभव के स्मरण के बाद दोनों को पूर्व जन्म की विद्यायें भी प्राप्त होती हैं । अनन्तर दोनों देशाटन करते हुए कैलाशगिरि पहुँचते हैं। लौटते समय वहीं रतिप्रभ देव के आदेश से कांचना देवी जयकुमार के शील की परीक्षा करती है । वह अनेक चेष्टाओं द्वारा भी उसे विचलित नहीं कर पाती तो उसे उठाकर भागने लगती है । यह देख सुलोचना उसकी भर्त्सना करती है। देवी उसके शील से भयभीत हो रतिप्रभ के समीप वापिस जाती है। रविप्रभ देव स्वर्ग से आकर क्षमायाचना पूर्वक उनकी पूजन करता है । तीर्थाटन के बाद जयकुमार अपने नगर वापिस पहुँचते हैं और सुखपूर्वक दिन व्यतीत करते हैं । जयकुमार एक बार तीर्थंकर ऋषभदेव का धर्मोपदेश सुनते हैं । वे आत्मकल्याण करने की इच्छा से अपने पुत्र अनन्तवीर्य को राज्य सौंपकर जिन दीक्षा अंगीकार करते हैं। वे तप कर इकहत्तरवें गणधर बनते हैं । भरत चक्रवर्ती की पटरानी सुभद्रा के समझाने पर सुलोचना भी ब्राह्मी आर्यिका से दीक्षित होकर तप करती है । सुलोचना का जीव अन्त में शरीर का त्यागकर अच्युतेन्द्र स्वर्ग के अनुत्तर विमान में देव बनता है । ' मूलकथा में परिवर्तन और उसका औचित्य जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन सन्त कवि "स्वान्तः सुखाय और सर्वजनहिताय" के प्रयोजन से काव्य सृजन करते हैं । वे इस प्रयोजन की सिद्धि हेतु पौराणिक कथानक का आश्रय लेते हैं या अपने युग के वातावरण एवं समाज व्यवस्था से प्रभावित होकर मौलिक कथानक का सृजन करते हैं । इसे रस, छन्द, अलंकार, गुण, रीति आदि से अलंकृत कर कवि अपनी अनुभूति को सहृदय के प्रति इस प्रकार प्रेषणीय बनाते हैं कि उसे ग्रहण कर सहृदय को आनन्द की उपलब्धि होती है। 1 महाकवि ज्ञानसागर ने अलौकिक आनन्दानुभूति के लक्ष्य से ही जयोदय महाकाव्य का सृजन किया है । उन्होंने ऐतिहासिक कथानक का अवलम्बन लिया है । उसमें अपनी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा द्वारा अनेक परिवर्तन किये हैं और उसे महाकाव्य के रूप में प्रस्तुत किया है । १. आदिपुराण, भाग - २, पर्व ४३-४७
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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