________________
93
को ग्रहण करने की अनुमति भी देती है। भगवती आराधना में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है कि संलेखना करने वाले मुनि के लिए चार मुनि आहारादि लाए और चार मुनि उस
आहारादि की रक्षा करे।' इस प्रकार यापनीय परंपरा में भीस्थविरकल्प और जिनकल्प दोनों का उल्लेख मिलताहै। नामकरण की सार्थकता
प्रस्तुत कृति को महाप्रत्याख्यान कहा गया है । प्रकीर्णक ग्रंथों में महाप्रत्याख्यान और आतुरप्रत्याख्यान - ये दोनों ग्रंथ समाधिमरण की अवधारणा से संबंधित है। महाप्रत्याख्यान शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है- सबसे बड़ा प्रत्याख्यान। प्रत्याख्यान का तात्पर्य त्याग से है। इस अनुसार सबसे बड़ा त्याग महाप्रत्याख्यान कहलाता है। व्यक्ति के जीवन में सबसे बड़ा त्याग यदि कोई है तो वह है- देह त्याग। प्रत्याख्यानपूर्वक देह त्याग करने को ही समाधिमरण कहा जाता है- समाधिमरण का विशेष उल्लेख होने से ही प्रस्तुत कृति को महाप्रत्याख्यान नाम दिया गया है। नन्दिचूर्णि और पाक्षिक सूत्र में महाप्रत्याख्यान का परिचय देते हुए जिस प्रकार समाधिमरण का उल्लेख हुआ है, उससे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि महाप्रत्याख्यान का संबंधसमाधिमरणसे है। __समाधिमरण से संबंधित विषयवस्तु वाले ग्रंथों में महाप्रत्याख्यान के अतिरिक्त
और भी अनेक ग्रंथ हैं जैसे- आतुरप्रत्याख्यान, मरणविभक्ति, मरणसमाथि, मरण विशुद्धि, संलेखनाश्रुत, भक्तपरिज्ञाऔर आराधनाआदि।समाधिमरण से संबंधित इन सभी ग्रंथों को एक ग्रंथ में समाहित करके उसे 'मरणविभक्ति 'नाम दिया गया है। उपलब्ध मरणविभक्ति में मरण विभक्ति, मरण समाधि, मरणविशुद्धि, संलेखनाश्रुत, भक्त परिज्ञा, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और आराधना - ये आठ ग्रंथ समाहित है। इन ग्रंथों में से मरण विभक्ति, मरणसमाधि, संलेखनाश्रुत, भक्ति परिज्ञा, आतुर प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान- इन ग्रंथों के नाम हमें नन्दीसूत्र मूल और उसकी चूर्णी में मिलते हैं।
1. वहींगाथा 661-663। 2. (क) नन्दीसूत्र 80/