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किन्तु शेष दो ग्रंथ मरणविशुद्धि और आराधना के नाम नन्दीसूत्र मूल और उसकी चूर्णी में उपलब्ध नहीं है। महाप्रत्याख्यान का मरणविभक्ति में समाहित किया जाना इस बात का सूचक है कि वह समाधिमरण से संबंधित रचना है। ग्रंथ का महाप्रत्याख्यान नाम इसलिए भी सार्थक है कि इसमें प्राणी की रागात्मकता या आसक्ति के मूल केन्द्र शरीर के ही परित्याग पर बल दिया गया है, वस्तुतः इसी अर्थ में यह ग्रंथ महाप्रत्याख्यान कहा जाता है। प्रकीर्णकों की मान्यता का प्रश्न___ श्वेताम्बरों में चाहे 84 आगम मनाने वाली परंपरा हो, चाहे 45 आगम मानने वाली परंपरा हो- दोनों ने प्रकीर्णक ग्रंथों को आगम रूप में स्वीकार किया है। किन्तु स्थानकवासीऔर तेरापंथी परंपरा जो 32 आगमों को ही मान्य कर रही हैं, उन्होंने दस प्रकीर्णक, जीतकल्प, ओघनियुक्ति तथा महानिशीथ - इस प्रकार कुल तेरह आगम ग्रंथों को अस्वीकार करके 45 आगमों में से 32 आगमों को ही स्वीकार किया है। प्रकीर्णक तथा तीन अन्य ग्रंथों को आगम रूप में अमान्य करने के जो कारण इन दोनों परंपराओं द्वारा बताए जाते हैं, वे यह है कि प्रकीर्णकों तथा इन तीन ग्रंथों में ऐसे कथन है जो मूल आगमों और इनकी परंपरागत मान्यताओं के विरुद्ध हैं।
मुनि किशनलालजी ने प्रकीर्णकों को अमान्य करने के लिए निम्नलिखित कारणों का उल्लेख किया है 1 -
1. “आउरपच्चक्खाण, गाथा 8 में पंडितमरण का अधिकार कहा गया है। गाथा 31 में सातस्थानों पर धन (परिग्रह) का उपयोग करने का आदेश है।गाथा 30 में गुरुपूजा, साधर्मिक भक्ति आदिसात बोलों का निर्देश है। आउरपच्चक्खाण की साक्षी है। किन्तु भक्त पइण्णा के नाम नहीं है। सावध (पाप सहित) भाषा का उपयोग सूत्र में नहीं हो सकता, इसलिए यह अमान्य है"
2. "गणिविजा पइन्ने में भी ज्योतिष की प्ररुपणा की है। उसके उदाहरण हैंश्रवण, धनेष्टा, पुर्नवसु - तीन नक्षत्रों में दीक्षा नहीं लेनी चाहिए (गाथा 22)। लेकिन 20 तीर्थंकरों ने श्रवण नक्षत्र में दीक्षा ग्रहण की, ऐसा आगमों में उल्लेख है। आगम में जिस कार्य को मान्य किया हो, उसके विपरीत उसका निषेध करे, उस ग्रंथ को कैसे
1.
नन्दीसूत्र 80, चूर्णी पृष्ठ 58।