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________________ 95 मान्य किया जाए ? उसका आधार क्या हो सकता है ? आगे वहीं आया है- किसीकिसी नक्षत्र में गुरु की सेवा नहीं करनी चाहिए, लुञ्चन नहीं करना चाहिए - ये सब बातें आगममें अनुमोदित नहीं है। इसलिए उनको मान्य नहीं किया गया है।'' _____3. “तन्दुलवेयालियं में संठाण के संबंध में जो चर्चा है, वह आगमों में सूचित निर्देशों से भिन्न है। परस्पर मेल नहीं खाती। वहाँ लिखा है- पाँचवें आरे के मनुष्य के अंतिम संहनन और संठाण होता है। दूसरे आगमों में छह ही संठाण संहनन मनुष्यों में पाए जाने की सूचना है। परस्पर विरोधाभास से तंदुलवेयालियं की बात कैसे मान्य की जा सकती है ? ऐसे अप्रमाणिक वचन चन्दगवेज्झय' (गाथा 98) में साधु के उत्कृष्ट तीन भवों का उल्लेख है जबकि अन्य आगमों की मान्यता में उत्कृष्ट पंद्रह भव में मोक्ष जाता हैं" ____4. “देविन्दस्तव में स्त्री के लिए अहो सुंदरी! आमंत्रण है। आचारांग में स्त्री के लिए बहिन का सम्बोधन है। अतः सुंदरी का सम्बोधन समुचित नहीं है।" 5. “महापच्चक्खाण गाथा 62 में देवेन्द्र तथा चक्रवर्तीत्व को समस्त जीव अनन्त बार उपलब्ध हुए हैं। प्रत्येक जीव चक्रवर्तीत्व अनन्त बार उपलब्ध नहीं हो सकते है । प्रत्येक जीव चक्रवर्तीत्व थी अनन्त बार उपलब्ध नहीं हो सकते, यह कथन आगम विरुद्ध है, इसको मान्य नहीं किया जा सकता।" इस प्रकार यहाँ हम देख रहे हैं कि मुनिजी ने आतुरप्रत्याख्यान, गणिविद्या, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, देवेन्द्रस्तव और महाप्रत्याख्यान के कुछ कथन लेकर सभी प्रकीर्णकों को आगम विरुद्ध बतलाने का प्रयास किया है। मुनिजी ने चन्द्रवेध्यक और तन्दुलवैचारिक को अमान्य करने के लिए जो तर्क दिए हैं उनकी पुष्टि में उन्होंने आगम के कोई संदर्भ नहीं दिए हैं। संदर्भ के अभाव में उनके कथन की प्रामाणिकता कैसे स्वीकार की जा सकती है? देवेन्द्रस्तव के बारे में उनका जो आक्षेप है वह कोई विशेष महत्व नहीं रखता, क्योंकि वहाँ किसी मुनिने नहीं वरन् किसी श्रावक ने अपनी पत्नी को सुंदर कहा है। . . . . 1. आगमों की प्रामाणिक संख्या : जयाचार्यकृत विवेचन-तुलसीप्रज्ञा-खंड 16, अंक 1 (जून-1990)
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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