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पुरुष प्रधान संस्कृति का ही परिणाम है। हमें ऐसा नहीं लगता कि तंदुलवैचारिक स्त्री को नीचा दिखाने के लिए ही नारी-निन्दा कर रहा है। वस्तुतः उसने तो मनुष्य को अध्यात्म और वैराग्य की दिशा में प्रेरित करने के लिए ही यह समग्र विवेचन किया है। यदि हम इस दृष्टि से ग्रंथ व ग्रंथकार के संदर्भ में मूल्यांकन करेंगे तो ही सत्य के अधिक निकट होंगे। वैसे जैन परंपरा में नारी की क्या भूमिका है और उसका कितना महत्त्व है, इसकी चर्चा हमने अपने लेख ‘जैन धर्म' में नारी की भूमिका' (श्रमण - अक्टूबर-दिसम्बर 1990) में की है। इस संदर्भ में पाठकों से उसे वहाँ देख लेने की अनुशंसा करते हैं । अतः तंदुलवैचारिक के कर्ता पर मानव जीवन, मानव शरीर और नारी जीवन के विकृत पक्ष को उभारने का आक्षेप लगाने के पूर्व हमें इस तथ्य को समझ लेना होगा कि ग्रंथकार का मूल प्रयोजन शरीर निन्दा या नारी - निन्दा नहीं है अपितु व्यक्ति की देहासक्ति और भोगासक्ति को समाप्त कर उसे आध्यात्मिक और नैतिक विकास की प्रेरणा देना है।
2 मार्च 1991
सागरमल जैन सहयोग: सुभाष कोठारी