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________________ तंदुलवैचारिक नारी-चरित्र का किस रूप में चित्रण करता है। इसकी चर्चा हम पूर्व में तंदुलवैचारिक की विषयवस्तु के विवरण के समय कर चुके हैं। यह तो निश्चित ही सत्य है कि तंदुलवैचारिक नारी-चरित्र को एक तरह से निन्दनीय रूप से प्रस्तुत करता है। नारी निंदा की जोसामान्य प्रवृत्ति श्रमण परंपरा में पाई जाती है, तंदुलवैचारिक भी उससे मुक्त नहीं है। यह सत्य है कि तंदुलवैचारिक नारी जीवन के विकृत पक्ष को ही हमारे सामने प्रस्तुत करता है। नारी के पर्यायवाची विभिन्न शब्दों की नियुक्तियाँ भी उसमें इसी दृष्टिकोण के आधार पर की गई है। किन्तु हमें इस संदर्भ में ग्रंथकार के दृष्टिकोण का सम्यक मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। वस्तुतः श्रमण परंपरा वैराग्य या निवृत्ति प्रधान है। उसका मूलभूत प्रयोजन व्यक्ति को सांसारिक जीवन से विमुख करके सन्यास की दिशा में प्रवृत्त करना है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि शरीर के पश्चात् मनुष्य की आसक्ति का मूलकेन्द्रस्त्रीही होती है। अतः जिस प्रकार ग्रंथ में शारीरिक विकृतियों को उभार कर प्रस्तुत किया गया है, उसी प्रकार इसमें नारी चरित्र की विकृतियों को भी उभार कर प्रस्तुत किया गया ताकि व्यक्ति का उनके प्रति जो रागभाव या आसक्ति है वह टूटे। नारी निंदा के पीछे मूलभूत दृष्टि मनुष्य की कामासक्ति को समाप्त करना है। वहाँ नारी-निन्दा, निन्दा के लिए नहीं है, अपितु पुरुष में वैराग्य के जागरण के लिए है। जैन लेखकों ने अनेक स्थलों पर इस तथ्य को स्वीकार किया है कि जिस प्रकार स्त्री पुरुष को अपने मोह पाश में फँसाकर उसकी दुर्गति करती है, उसी प्रकार पुरुष भी नारी को अपनी वासनापूर्ति का माध्यम बनाकर उसके साथ दुर्व्यवहार करता है। वस्तुतः श्रमण परंपरा में नारी-निंदा को उभर कर सामने आने का मुख्य कारण भारत की पुरुष प्रधान संस्कृति ही है। चूंकि पुरुष प्रधान संस्कृति में समस्त उपदेश पुरुष को ही सामने रखकर दिये जाते हैं, अतः यह स्वाभाविक था कि उसमें नारी-निन्दा को उभार कर सामने लाया गया। सूत्रकृतांग एवं तंदुल-वैचारिक के अतिरिक्त अन्य प्राचीन आगम ग्रंथों में भी हमें नारी - निन्दा के उल्लेख प्राप्त होते हैं, विशेष रूप से उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित में। ऋषिभाषित के गर्दभालीय अध्ययन में धर्म को पुरुष प्रधान कहा गया है। उसमें तो यहां तक कहा गया है कि वे ग्राम और नगर धिक्कार के योग्य हैं जहाँ नारी शासन करती है। वे पुरुष भी धिक्कार के पात्र हैं जो नारी से शासित होते है (22/1) किन्तु यह सब स्पष्ट रूप से
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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