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वहाँ चित्रित किया गया है। इस समग्र चिंतन को भी हमें उसी दृष्टि से देखना होगा कि मानव जीवन की इस नश्वरता, क्षणभंगुरता और अशुचित्ता से मनुष्य को कैसे मुक्त कियाजासके? ___ गर्भावस्था का यह चित्रण समकालीन मानव शरीर-रचना-विज्ञान से अनेक बातों में संगति रखता है। विशेष रूप से स्त्री-पुरुष की गर्भाधान सामर्थ्य, प्रत्येक माह में होने वाला गर्भ का क्रमिक विकास आदि। यद्यपि इस संदर्भ में प्रस्तुत सभी तथ्य आज वैज्ञानिको से पूर्णतया समर्थित है, ऐसा हम नहीं कह सकते किन्तु इसका बहुत कुछ विवरण विज्ञान सम्मत भी है, इससे इंकार भी नहीं कियाजासकता।
__शरीर की संरचना के संदर्भ में लेखक ने अनुभूत तथ्यों को ही अपना आधार बनाकर लिखा है किन्तु यह भी सत्य है कि उसमें जो हड्डियों, शिराओं आदि की संस्थाएँ बताई गई हैं वे आधुनिक मानव शरीर विज्ञान से मेल नहीं खाती है। जैसे तंदुलवैचारिक मानव शरीर में 300 हड्डियों की उपस्थिति मानता है जबकि आधुनिक मानव शरीर विज्ञान के अनुसार मनुष्य के शरीर में 252 अस्थियाँ ही पाई जाती है। यही स्थिति शिराओं आदि के संदर्भ में भी समझनी चाहिए। वस्तुतः उस युग में जिस स्तर पर अनुभूति संभव हो सकती थी, उसी स्तर पर रहकर प्रस्तुत ग्रंथ लिखा गया था। फिर भी उसका विवरण लगभग सत्य के निकट ही है। आज मानव शरीर विज्ञान और तंदुलवैचारिक के विवरणों की तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता है।
जहाँ तकतंदुलवैचारिक में वर्णित नारी-स्वभाव के चित्रण का प्रश्न है, निश्चय ही स्त्री के चरित्र का इतना विस्तृत, मनोवैज्ञानिक और भाषा-शास्त्रीय विवेचन जैन आगमों में अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है । यद्यपि सूत्रकृतांग के स्त्री परिज्ञा नामक अध्ययन में हमें सर्वप्रथम नारी-चरित्र का उल्लेख मिलता है, जिसमें मुख्य रूप से यह बतलाया गया है कि स्त्री भिक्षु को अपने पाश में फँसाकर फिर उसके साथ कैसा दुर्व्यवहार करती है। यद्यपि नारी के चरित्र में तंदुलवैचारिक और सूत्रकृतांग दोनों का दृष्टिकोण समान ही है और कुछ स्थलों पर दोनों में शाब्दिक समानता भी पायी जाती है । दोनों ही यह मानते हैं कि नारी-चरित्र को समझ लेना विद्वानों के लिए भी दुष्कर है। फिर भी इतना तोअवश्य मानना ही होगा कि तंदुलवैचारिक का यह विवरण सूत्रकृतांग के स्त्री परिज्ञा के विवरण की अपेक्षा विकसित है और किसी सीमा तक परवर्ती भी।