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________________ हमें यह मानना होगा कि इन दस दशाओं का विस्तृत विवरण सर्वप्रथम तंदुलवैचारिक में ही किया गया होगा। तंदुलवैचारिक के अतिरिक्त दशवैकालिक नियुक्ति की दसवीं गाथा में इन दस दशाओं का नामोल्लेख है। सर्वप्रथम हरिभद्र ने दशवैकालिक की टीका में पूर्वमुनि-रचित इस गाथाओं को उद्धृत किया है। वे ही गाथाएँ अभयदेव ने अपनी स्थानांग वृत्ति में भी उद्धृत की है। हमें ऐसा लगता है कि आचार्य हरिभद्र और आचार्य अभयदेव दोनों ने ही ये गाथाएँ तंदुलवैचारिक से ही उद्धृत की होगी। दशवैकालिक की हरिभद्रीय टीका तथा स्थानांग की अभयदेववृत्ति में ये गाथाएँ शब्दशः समान पाई जाती हैं। हरिभद्र द्वारा इन्हें पूर्वाचार्य कृत कहने से स्पष्ट है कि उन्होंने इन्हें तंदुलवैचारिक से ही लिया होगा। कालिक दृष्टि से भी तंदुल-वैचारिक की उपस्थिति के संकेत तोपाँचवींशती से मिलते हैं जबकि हरिभद्रआठवीं शतीके हैं। ___इन दस दशाओं की विवेचना पर यदि हम गंभीरता से विचार करें, तो यह पाते हैं कि इनमें से पाँच दशाएँ शरीर और चेनता के विकास को सूचित करती है और अंत की पाँच दशाएँ क्रमशः शरीर एवं चेतना के ह्रास को सूचित करती है। वस्तुतः यह मानव जीवन का यथार्थ है कि प्रथमतः मनुष्य के शरीर और बुद्धितत्त्व में क्रमशः विकास होता है और फिर उसमें क्रमशः हास होता है। सामान्यतया तंदुलवैचारिक का रचनाकार तथा हरिभद्र एवं अभयदेव इन दस दशाओं के विवेचन के संदर्भ में समान दृष्टिकोण रखते हैं। फिर भी जहाँ हरिभद्र ने नवीं दशा को मृन्मुखी और दसवीं दशा को शायिनी बताया है वहाँ अभयदेव नवीं दशा को मुङ्मुखीऔर दसवीं दशा को शायनी कहते हैं। दशाओं का यह विवेचन अनुभव के स्तर पर भीखरा उतरता है। तंदुलवैचारिककार इन दशाओं के चित्रण के माध्यम से यही बताना चाहता है कि मनुष्य जिस देह के साथ अत्यंत आसक्ति रखता है, वह देह किस प्रकार विकसित होती है और कैसे ह्रास को प्राप्त होकर नष्ट हो जाती है। . तंदुलवैचारिक में इन दस दशाओं के विवेचन के पूर्व मनुष्य की गर्भावस्था और उसमें होने वाले विकास का चित्रण किया गया है। गर्भावस्था के इस चित्रण में ग्रंथाकार ने वही विवरण दिया है जो जैन और जैनेत्तर परंपराओं में सामान्यतया हमें उपलब्ध हो जाता है। इसमें गर्भाधान से लेकर जन्मतक की समस्त विकास प्रक्रिया को दिखाया गया है कि गर्भावस्था में मनुष्य की स्थिति कैसी-कैसी होती है एवं उसकी शरीर-रचना और उसके व्यक्तित्व के निर्माण में किसका क्या सहयोग होता है, यह भी
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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