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तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक की विषय वस्तु को मुख्य रूप से तीन भागों में
विभाजित किया जा सकता है :
(1) मानवजीवन की विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण
(2) मानव शरीर रचना और
(3) स्त्रीचरित्र का विवेचन
उपरोक्त तथ्यों की तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक विवेचना के संदर्भ में सर्वप्रथम तंदुल वैचारिक की मूलभूत दृष्टि को समझ लेना अति आवश्यक है। तंदुलवैचारिक मूलतः श्रमण परंपरा का अध्यात्म और वैराग्य प्रधान ग्रंथ है। यह सत्य है कि उसमें मानव जीवन की विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण एवं मानव शरीर रचना का विवेचन है, किन्तु उस विवेचन का मूल उद्देश्य मानव शरीरशास्त्र एवं मानव जीवन के स्वरूप को समझा कर, व्यक्ति की वैराग्य की दिशा में प्रेरित करना है। हमें यह ध्यान में रखना होगा कि तंदुल वैचारिक का लेखक शरीर रचना विज्ञान का अध्यापक में होकर एक ऐसा भिक्षुक है जो जन-जन को त्याग और वैराग्य की दिशा में प्रेरित करना चाहता है । उसका उद्देश्य शरीर एवं मानव जीवन के घृणित और नश्वर स्वरूप को उभार कर श्रोता के मन में शरीर के प्रति निर्ममत्त्व जाग्रत करना है। इसलिए प्रत्येक चर्चा के पश्चात् वह यही कहता है कि इस नश्वर एवं घृणित शरीर के प्रति मोह नहीं करना चाहिए। वस्तुतः मानव जीवन में जितने भी पाप या दुराचरण होते हैं अथवा नैतिक मर्यादाओं का भंग होता है, उसके पीछे मनुष्य की देहासक्ति और इन्द्रियपोषण की प्रवृत्ति ही मुख्य है । तंदुलवैचारिक का रचनाकार साधक को देहासक्ति और इन्द्रियपोषण की इस प्रवृत्ति से विमुख करना चाहता है । यही कारण है कि उसने शरीर रचना के उस पक्ष को अधिक उभारा है जिसे पढ़कर या सुनकर मनुष्यों में देह के प्रति आसक्ति समाप्त हो और विरक्ति जाग्रत हो ।
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मानव शरीर की विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण भी मूलतः इसी उद्देश्य से किया गया है कि मनुष्य वैराग्य की दिशा में अग्रसर हो । मानव जीवन की दस दशाओं का विवेचन जैन परंपरा में सर्वप्रथम स्थानांग सूत्र में उपलब्ध होता है किन्तु उसके मूल पाठ में केवल दस दशाओं का नामोल्लेख मात्र है, प्रत्येक दशा का विशिष्ट विवरण उपलब्ध नहीं है। यदि हम तंदुलवैचारिक को नियुक्ति के पूर्व की रचना मानते है तो