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मात्र चावल के बारे में विचार किया होगा, परंतु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। इसमें मुख्य रूप से मानव जीवन के विविध पक्षो यथा गर्भावस्था, मानव-शरीर रचना, उसकी शत वर्ष की आयु के दस विभाग, उनमें होने वालीशरीरिक स्थितियाँ, उसके आहार आदि के बारे में भी पर्याप्त विवेचन किया गया है। प्रत्येक ग्रंथ की तरह इसके प्रारंभ में भी मंगलाचरण है। भगवान महावीर की वंदना से यह ग्रंथ प्रारंभ होता है। इसके पश्चात् निम्न विषय क्रमानुसार वर्णित है
गर्भावस्था : सर्वप्रथम इसमें गर्भावस्था का विस्तार से विवेचन किया गया है। सामान्यतया मनुष्य दो सौ साढ़े सत्तहत्तर दिन गर्भ में रहता है। इस संख्या में कभी-कभी कमी या वृद्धि भी हो सकती है। (2-8) इसके बाद गर्भधारण करने में समर्थ योनि का स्वरूप बतलाया गया है। साथ ही यह बतलाया गया है कि स्त्री पचपन वर्ष की आयु तक और पुरुष पचहत्तर वर्ष तक संतान उत्पन्न करने में समर्थ होता है। (9-13) माता के दक्षिण कुक्षि में रहने वाला गर्भ नपुंसक का होता है। गर्भगत जीव संपूर्ण शरीर से आहार ग्रहण करता है तथा श्वाँस लेता है और छोड़ता है। इसके आहार को ओजआहार कहा जाता है। (14-21) गर्भस्थ जीव के तीन अंग माता के एवं तीन अंग पिता के कहे गये हैं । गर्भ के मांस, रक्त और मस्तक कास्नेह माता के एवं हड्डी, मज्जा एवं केश-रोम-नाखून पिता के अंग माने गये है। (25) गर्भ में रहा हुआ जीव अगर मृत्यु को प्राप्त हो जाय तो वह नरक एवं देवलोक दोनों में उत्पन्न हो सकता है। (2627) गर्भगत जीव माता के समान भावों एवं क्रियाओं वाला होता है अर्थात् माता के उठने, बैठने, सोने अथवा दुःखी या सुखी होने पर वह भी उठता, बैठता, सोता है तथा दुःखी या सुखी होता है। (28) पुरुष, स्त्री और नपुंसक की उत्पत्ति के बारे में कहते हैं कि पुरुष का शुक्र अधिक एवं माता का ओज कम हो तो पुत्र, ओज अधिक और शुक्र कम हो तो पुत्री और दोनों बराबर होने पर नपुंसक की उत्पत्ति होती है। (35) शरीर के अशुचित्त्व को प्रकट करते हुए कहा गया है कि अशुचि से उत्पन्न सदैव दुर्गंधयुक्त मल से भरे हुए इसशरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए।
दस दशाएँ : गर्भावस्था के विवेचन के पश्चात् इसमें मनुष्य की सौ वर्ष की आयु को दस अवस्थाओं में विभक्त किया गया है, जिनके नाम, क्रमशः इस प्रकार है(1) बाला, (2) क्रीड़ा, (3) मंदा, (4) बला, (5) प्रज्ञा, (6) हायणी, (7) प्रपञ्चा (8) प्राग्भारा (9) मुन्मुखी और (10) शायनी। (45-58) इन अवस्थाओं में व्यक्ति को अपना समय जिनभाषित धर्म का पालन करने में बिताना चाहिए। (59