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2. तन्दुल वैचारिक
___ नन्दीसूत्र में तंदुवैचारिक का उल्लेख अंगबाह्य, आवश्यक-व्यक्तिरिक्त उत्कालिक आगमों में हुआ है। पाक्षिक सूत्र में भी आगमों के वर्गीकरण की यही शैली अपनाई गई है। इसके अतिरिक्त आगमों के वर्गीकरण की एक प्राचीन शैली हमें यापनीय परंपरा के शौरसेनी आगम ‘मूलाचार' में भी मिलती है। मूलाचार
आगमों को चार भागों में वर्गीकृत करता है' - (1) तीर्थंकर-कथित (2) प्रत्येक बुद्ध-कथित (3) श्रुतकेवली-कथित (4) पूर्वधर - कथित। पुनः मूलाचार में इन
आगमिक ग्रंथों का कालिक और उत्कालिक के रूप में भीवर्गीकरण किया गया है। किन्तु मूलाचार में कहीं भीतंदुलवैचारिक का नाम नहीं आया है। अतः यापनयि परंपरा इसे किस वर्ग में वर्गीकृत करतीथी, यह कहना कठिन है।'
___ वर्तमान में आगमों के अंग, उपांग, छंद, मूलसूत्र, प्रकीर्णक आदि विभाग किये जाते हैं । यह विभागीकरण हमें सर्वप्रथम विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ - 13वीं शताब्दी) में प्राप्त होता है। सामान्यतया प्रकीर्णक का अर्थ विविध विषयों पर संकलित ग्रंथ ही किया जाता है। नंदीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने लिखा है कि तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते थे। परंपरानुसार यह भी मान्यता है कि प्रत्येक श्रमण एक-एक प्रकीर्णक की रचना करता था। समवायांग सूत्र में “चोरासीइ पण्णग सहस्साइ पण्णत्ता' कहकर ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों के चौरासी हजार प्रकीर्णकों का उल्लेख किया है। महावीर के तीर्थ में चौदह हजार साधुओं का उल्लेख प्राप्त होता है। अतः उनके तीर्थ में प्रकीर्णकों की संख्या भी चौदह हजार मानी गई है। किन्तु आज प्रकीर्णकों की संख्या दस मानी जाती है। ये दस प्रकीर्णक निम्न है- (1) चतुःशरण, (2) आतुरप्रत्याख्यान, (3) महाप्रत्याख्यान, (4) भत्तपरिज्ञा, (5) तंदुलवैचारिक,
1. मूलाचार - भारतीय ज्ञानपीठगाथा 277 2. विधिमार्गप्रपा - पृष्ठ 551 3. समवायांगसूत्र - मुनि मधुकर- 84वाँसमवाय