SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 59 परंपरा में प्रत्येक विमान में एक हीशय्यासे उत्पत्तिमानी गई है। देवों की इनअवधारणाओं में सबसे महत्वपूर्ण भिन्नता यह है कि बौद्ध परंपराआरुप्यधातु देवों की उपस्थिति भी मानती है। उसके अनुसार ये देव अरुपी होते हैं। इनमें देवों या सत्त्वों की चार ध्यानभूमियाँ मानी गई है। 1.आकाशानन्त्यायतन 2. विज्ञानानन्त्यायतन 3. अकिंचन न्त्यायतन इन भूमियों के सुखों की इच्छा रखते हुए यदि सत्त्व कुशल धर्म और ध्यान को सम्पन्न करत है तो वह अरुपलोक के सुखों का उपभोग करता है। इस अरुपलोक की चतुर्थ भूमि नैवसंज्ञानासंज्ञायतनतकहीसंभव है, इसलिए इसे लोकाग्र कहा गया है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि यह स्थिति जैनों कीअरुपी सिद्धआत्मा के समान ही है। जिस प्रकार सिद्धात्मा अनंत सुख का भोग करती हुई लोकाग्र में स्थित रहती है, उसी प्रकार यहाँ भी सत्त्व मात्र चेतना-प्रवाह रूप होकर लोकाग्र पर निवास करता है। अंतर मात्र यही है कि जहाँ जैनों के अनुसार सिद्ध गति में आत्मा की स्थिति अनंतकाल तक ही होती है, वहाँ बौद्धों ने इसे एक सीमित काल तक ही माना है। यद्यपि बौद्धों की मान्यता यह है कि इस काल-स्थितिके समाप्त होने पर वह चित्तसन्तति निर्वाण को प्राप्त कर लेती है, उसे पुनः मनुष्यलोक में जन्म नहीं लेना होता है। अतः इसकी स्थिति जैनों के सर्वार्थसिद्ध विमान से भी भिन्न है। चूंकि बौद्ध परंपरा में निर्वाण का निर्वचन उपलब्ध नहीं है और न यह बताया गया है कि निर्वाण प्राप्त सत्त्व का क्या होता है ? इसलिए जैनों के सिद्धों की स्थिति के अनुरूप इसमें कोई अवधारणा उपलब्ध नहीं है। __इस प्रकार जैन और बौद्ध परंपरा में देवनिकाय की अवधारणा को लेकर अनेक बातों पर विचार किया गया है, जिनमें कुछ प्रश्नों पर परस्पर समानता और कुछ प्रश्नों पर असमानता पाई जाती है। प्रस्तुत भूमिका में हमने जैन परंपरा की अवधारणा को जहाँ देवेन्द्रस्तव के आधार पर वर्णित किया है, वहीं बौद्ध परंपरा के लिए हमने अभिधर्म-कोश के लोक-निर्देश नामक तृतीय स्थान को आधार बनाया है। इसी प्रकार हिन्दू, ईसाई और इस्लाम धर्मो में भी देवताओं और स्वर्ग की अवधारणाएँ की गई है, फिर भी विस्तार भय से इन सबकी चर्चा में जाना यहाँ संभव नहीं है। हम यहाँ केवल इतना ही कहना चाहेंगे कि जैन परंपराने अन्य धर्म के समान ही देवों की अवधारणापर विस्तृत विवचन किया है। फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जैन परंपरा के अनुसार देवयोनि को प्राप्त करना जीवन का साध्य नहीं है। जीवन का साध्य तो निर्वाण की प्राप्ति है। यद्यपि देव योनि को श्रेष्ठ माना गया है किन्तुजैनों की अवधारणा यह है कि निर्वाण की प्राप्ति देवयोनिसेनहोकर मनुष्य योनि में होती है। अतः मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और वह अपनी साधना के द्वारा उस अर्हत् अवस्थाको प्राप्त कर सकता है, जिसकी देवताभीवंदना करते हैं। 24 नवंबर, 1988 प्रो.सागरमल जैन सहयोगः डॉ. सुभाष कोठारी
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy