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________________ 58 कि चंद्र कभी पूर्ण व कभी विकल दिखाई पड़ता है। यहीं पद दिन और रात्रि के घटने बढ़ने का कारण भी बताया गया है । इस प्रकार तुलनात्मक रूप से हम ये पाते हैं कि जैनों की सूर्य-चन्द्र आदि के गति की कल्पना और चंद्रमा की विकलता में राहु के विमान को उत्तरदायी बताना यह प्राचीन काल की अवधारणा है । ज्योतिष्क देवों के ऊपर विमानवासी देवों की स्थिि गई है। बौद्ध परंपरा के अनुसार कामधातु के विमानवासी देव चार प्रकार के माने गये है-याम, तुषित निर्माणरति और परनिर्मितवशवर्तिन । इस प्रकार कामावचरसुगर्तिभूमि के चातुर्माहाराजिक व त्रास्त्रिशक ये दो भूमिवासी और शेष चार विमानवासी ये छः प्रकार माने गये है। इन्हें कामधातु देव इसलिए कहा गया है कि ये काम - वासना की संतुष्टि सामान्यतया विभिन्न उपायों से करते हैं। चातुर्माहाराजिक व त्रायस्त्रिशक देव का मैथुन मनुष्यों के समान द्वन्द्व समापत्ति से होता है और शक्र का अभाव होने से वायु ही निर्गत कर परिदाह विगम करते हैं, शेष चार में से याम आलिङ्गन से, तुषित पाणिग्रहण से, निर्माणरति हास-परिहास से तथा परनिर्मितवशवर्तिन देखने मात्र से कामवासना संबंधी परिदाह का विगम करते हैं। इस प्रकार देवों की काम वासना को संतुष्टि में दोनों परंपराओं में बहुत कुछ समानताएं है और दोनों के अनुसार वैमानिक देवों तक काम वासना की उपस्थिति मानी गई है । यद्यपि वैमानिक देवों के भेदों आदि को लेकर दोनों में मतभेद है। जहां बौद्ध परंपरा में केवल चार प्रकार के वैमानिक देव माने गये हैं वहाँ जैन परंपरा में श्वेताम्बरों के अनुसार 12 और दिगम्बरों के अनुसार 16 भेद माने गये हैं । जिस प्रकार जैन परंपरा ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान में काम-वासना की उपस्थिति नहीं मानती है, उसी प्रकार बौद्ध परंपरा भी रूपावचर देवों में कामवासना की उपस्थिति नहीं मानती है । रूपधातु देवों के अंतर्गत 17 भेद माने गये हैं इनमें अंत के पांच शुद्धावासिक कहे गये हैं। जिस प्रकार जैनों में ग्रैवेयकों के तीन-तीन वर्ग माने गये हैं, उसी प्रकार बौद्धों में प्रथम ध्यान, द्वितीय ध्यान और तृतीय ध्यान में प्रत्येक के तीन-तीन भेद किये गये हैं। यद्यपि चतुर्थ ध्यान में तीन भेदों के अतिरिक्ति पाँच शुद्धावासिक भी माने गये हैं । इनके स्थापना पर जैनों ने 5 सर्वार्थसिद्ध विमान माने है । इस प्रकार नाम आदि की तो दोनों परंपराओं में भिन्नता है परंतु अवधारणा की दृष्टि से कुछ समानता दृष्टिगोचर होती है। रूपधातु देवों के शरीर की लंबाई और आयुष्य को लेकर दोनों परंपराओं में कोई समानता नहीं है। किन्तु यह अवश्य देखा जाता है कि क्रमशः ऊपर के देवों की आयु नीचे के देवों की अपेक्षा अधिक होती है । लंबाई के दृष्टिकोण को लेकर दोनों में भिन्न दृष्टिकोण देखे जाते हैं, जैन परंपरा में क्रमशः ऊपर के देवों की लंबाई कम होती जाती है वहाँ बौद्ध परंपरा में बढ़ती जाती है । हाँ ! दोनों में यह समानता है कि दोनों के अनुसार देव उपपादुक या औपपातिक ही होते हैं । बौद्ध परंपरा में देवों की उत्पत्ति माता-पिता की जंघाओं पर बताई गई है। वहाँ जैन
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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