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________________ 57 जैन परंपरा में भवन पति देवों का जो उल्लेख है वैसा उल्लेख बौद्ध परंपरा में नहीं मिलता है, किन्तु बौद्ध परंपरा में कामधातु देवों के मुख्य रूप से भूमिवासी और विमानवासी ऐसे दो विभाग किये गये हैं। भूमिवासी देवों की कल्पना जैनियों के भवनवासी देवों के निकट तो है परंतु मुख्य अंतर यह है कि भवनपति देवों के कुछ आवास अधोलोक में माने गये हैं वहां बौद्धों के अनुसार भूमिवासी देवों के आवास सुमेरु की श्रेणियों पर माने गये हैं। बौद्धों में भूमिवासी देवों के मुख्य रूप से चातुर्माहाराजिक और त्रायस्त्रिंशक दो प्रकार किये गये हैं पुनः चातुर्माहाराजिक देवों के करीट पानी, मालाधर, सदामद तथा चार माहराजक ये चार प्रकार प्रकार किये गये है। भूमिवासी देवों का दूसरा वर्ग त्रायस्त्रिशक देव है। ये तैंतीस देव अपने पार्षदों सहित सुमेरुपर्वत पर निवास करते हैं । बौद्ध विचारकों के अनुसार ये त्रायस्त्रिशक देव सुमेरु शिखर, जो 80 हजार योजन विस्तृत है उन पर और इसकी उपदिशाओं में पांच सौ योजन ऊँचे विशाल कूट हैं जिनमें व्रजवाणी नामक यक्ष निवास करते हैं। शिखर के मध्य में देवराज शक्र की सुदर्शन नामक राजधानी बताई गई है जहाँ शक्र का 250 योजन विस्तृत वैजयन्त नामक भवन बताया गया है। हम देखते हैं कि जहाँ जैनों के अनुसार शक्र और त्रायस्त्रिशक को विमानवासी देव माना गया है वहाँ बौद्ध परंपरा उन्हें भूमिवासी देवमानती है। पुनः बौद्धों के अनुसार चातुर्माहाराजिक देवों का ही एक वर्ग सूर्य, चंद्र और तारा विमानों में निवास करत है जबकि जैन परंपरा में ज्योतिष्क देवों का एक स्वतंत्र वर्ग माना गया है। यद्यपि बौद्ध परंपरा में चंद्र, सूर्य और तारकों का उल्लेख उपलब्ध है परंतु अभिधर्मकोश में नक्षत्रों का उल्लेख नहीं है। बौद्धों के अनुसार चन्द्र, सूर्य और तारक मेरु के चारों ओर भ्रमण करते हैं और उनकी गति युगंधर के शिखर के समतल पर होती है। पुनः बौद्धों के अनुसार चन्द्रबिम्ब 50 योजन का एवं सूर्यबिम्ब 51 योजन का माना गया है। तारकों में सबसे छोटा विमान एक कोश परिमाण एवं सबसे बड़ा विमान 16 योजन का माना गया है। सूर्य के विमान के अधर और बाह्य में एक तेजस् चक्र होता है वहां चन्द्र विमान के अधर और बाह्य में एक आभा चक्र होता है। जिसके फलस्वरूप क्रमशः प्रकाश और ज्योत्स्ना होती है। जैनों की तरह बौद्धों में इनकी विस्तृत संख्या का उल्लेख नहीं मिलता है, बौद्ध परंपरा में मात्र यह कहा गया है कि चतुर्वीप में एक चन्द्र और एकसूर्य होता है। चन्द्रबिम्ब के विकल होने के कारणों के संबंध में जहाँ जैन परंपरा इसकी विकलता का कारण राहु के विमान को मानती है, वहाँ बौद्ध परंपरा चंद्र-सूर्य विमान के सान्निध्य को ही इसका कारण मानती है। इनके अनुसार जब चन्द्र- विमान सूर्य-विमान के सान्निध्य में आता है तब सूर्य का आतप चंद्र-विमान पर पड़ता है। अतः ऊपर पार्श्व में छाया पड़ती है और मंडल विकल दिखाई देने लगता है। अभिधर्मकोश में कहा है कि चंद्र का बाह्य योग ऐसा है
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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