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379 तीर्थविषयक श्वेताम्बर जैन साहित्य तीर्थविषयक साहित्य में कुछ कल्याणक भूमियों के उल्लेख समवायांग, ज्ञाता और पर्युषणकल्प में हैं। कल्याणक भूमियों के अतिरिक्त अन्य तीर्थक्षेत्रों के जो उल्लेख उपलब्ध होते हैं उनमें श्वेताम्बर परंपरा में सबसे पहले महानिशीथ और निशीथचूर्णी में हमें मथुरा, उत्तरापथ और चम्पा के उल्लेख मिलते हैं। निशीथचूर्णी, व्यवहारभाष्य, व्यवहारचूर्णी आदि में नामोल्लेख के अतिरिक्त इन तीर्थों के संदर्भ में विशेष कोई जानकारी नहीं मिलती ; मात्र यह बताया गया है कि मथुरा स्तूपों के लिए उत्तरापथ धर्मचक्र के लिए और चम्पाजीवन्तस्वामी की प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध थे। तीर्थसंबंधी विशिष्ट साहित्य में तित्थोगालिय, प्रकीर्णक, सारावली प्रकीर्णक के नाम महत्वपूर्ण माने जा सकते हैं किन्तु तित्थोगालिय प्रकीर्णक में तीर्थस्थलों का विवरण न होकर साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रुप चतुर्विध तीर्थ की विभिन्न कालों में विभिन्न तीर्थंकरों द्वारा जो स्थापना की गई, उसके उल्लेख मिलते हैं, उसमें जैन संघरुपी तीर्थ के भूत और भविष्य के संबंध में कुछ सूचनाएँ प्रस्तुत की गई हैं। उसमें महावीर के निर्वाण के बाद आगमों का विच्छेद किस प्रकार से होगा? कौन-कौन प्रमुख आचार्य
और राजा आदि होंगे, इसके उल्लेख हैं । इस प्रकीर्णक में श्वेताम्बर परंपरा को अमान्य ऐसे आगम आदि के उच्छेद के उल्लेख भी हैं । यह प्रकीर्णक मुख्यतः महाराष्टी प्राकृत में उपलब्ध होता है, किन्तु इस पर शैरसेनी का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। इसका रचनाकाल निश्चित करना तो कठिन है, फिर भी यह लगभग दसवीं शताब्दी के पूर्वका होना चाहिए, ऐसाअनुमान कियाजाता है।
तीर्थ संबंधी विस्तृत विवरण की दृष्टि से आगमिक और प्राकृत भाषा के ग्रंथों में “सारावली” को मुख्य माना जा सकता है। इसमें मुख्य रूप से शत्रुजय अपरनाम पुण्डरिक तीर्थ की उत्पत्ति - कथा दी गई है। इस प्रकीर्णक में शत्रुजय तीर्थ का निर्माण कैसे हुआ और उसका पुण्डरिक नाम कैसे पड़ा? ये दो बाते मुख्य रूप से विवेचित हैं और इस संबंध में कथाभी दी गई है। यह संपूर्णग्रंथ लगभग 116 गाथाओं में पूर्ण हुआहै। यद्यपि यह ग्रंथ प्राकृत भाषा में लिखा गया है, किन्तु भाषा पर अपभ्रंश के प्रभाव को देखते हुए इसे परवर्ती ही माना जायेगा। इसका काल दसवीं शताब्दी के लगभगरहा होगा।
इस प्रकीर्णक में इस तीर्थ पर दान, तप, साधना आदि के विशेष फल की चर्चा हुई है। ग्रंथ के अनुसार पुण्डरिक तीर्थ की महिमा और कथा अतियुक्त नामक ऋषि ने नारद को सुनाई, जिसे सुनकर उसने दीक्षित होकर केवल ज्ञान और सिद्धि को प्राप्त