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380 किया। कथानुसार ऋषभदेव के पौत्र पुण्डरिक के निर्वाण के कारण यह तीर्थ पुण्डरिक गिरि के नाम से प्रचलित हुआ। इस तीर्थ पर नमि, विनमि आदि दो करोड़, केवली सिद्ध हुए हैं । राम, भरत आदि तथा पंचपाण्डवों एवं प्रद्युम्न, शाम्ब आदि कृष्ण के पुत्रों के इसी पर्वत से सिद्ध होने की कथा भी प्रचलित है। इस प्रकार यह प्रकीर्णक पश्चिम भारत के सर्वविश्रुत जैन तीर्थ की महिमा का वर्णन करने वाला प्रथम ग्रंथ माना जा सकता है। इस प्रकीर्णक ग्रंथ की विषयवस्तु की विस्तृत चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। श्वेताम्बर परंपरा के प्राचीन आगमिक साहित्य में इसके अतिरिक्त अन्य कोई तीर्थ संबंधी स्वतंत्र रचना हमारी जानकारी में नहीं है।
__इसके पश्चात् तीर्थ संबंधि साहित्य में प्राचीनतम जो रचना उपलब्ध होती है, वह बप्पभट्ठिसूरि की परंपरा के यशोदेवसूरि के गच्छ के सिद्धसेनसूरि का सकलतीर्थ स्तोत्र है। यह रचना ई. सन् 1067 अर्थात् ग्यारहवी शताब्दी के उत्तरार्ध की है। इस रचना में सम्मेत शिखर शत्रुजय, उर्जयन्त, अर्बुद, चित्तौड़, जालपुर (जालौर) रणथम्भौर, गोपालगिरि (ग्वालियर), मथुरा, राजगृह, चम्पा, पावा, अयोध्या, काम्पिल्य, भदिलपुर, शैरीपुर, अंगइया (अंगदिका), कन्नोज, श्रावस्ती, वाराणसी, राजपुर, कुण्डनी, गजपुर, तलवाड़, देवराउ, खंडिल, डिण्डूवान (डिडवाना), नरान, हर्षपुर (षट्टउदेसे), नागपुर (नागौर-साम्भरदेश), पल्ली, सण्डेर, नाणक, कोरण्ट, भिन्नमाल (गुर्जर देश), आहड (मेवाड़ देश) उपकेसनगर (किराडउए) जयपुर (मरुदेश) सत्यपुर (साचौर), गुहुयराय, पश्चि वल्ली, थाराप्रद, वायण, जलिहर, नगर, भरुकच्छ (सौराष्ट) कुंकन, कलिकुण्ड, मानखेड़, (दक्षिण भारत) धारा, उज्जैनी (मालवा) आदितीर्थों का उल्लेख है।
सम्भवतः समग्र जैन तीर्थों का नामोल्लेख करने वाली उपलब्धि रचनाओं में यह प्राचीनतम रचना है। यद्यपि इसमें दक्षिण के उन दिगम्बर जैन तीर्थों के उल्लेख नहीं हैं जो कि इस काल में अस्तित्ववान थे। इस रचना के पश्चात् हमारे सामने तीर्थ संबंधि विवरण देने वाली दूसरी महत्वपूर्ण एवं विस्तृत रचना विविध तीर्थकल्प है, इस ग्रंथ में दक्षिण के कुछ दिगंबर तीर्थों को छोड़कर पूर्व, उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत के लगभग सभी तीर्थों का विस्तृत एवं व्यापक वर्णन उपलब्ध होता है, यहई. सन् 1332 की रचना है । श्वेताम्बर परंपरा की तीर्थसंबंधी रचनाओं में इसका अत्यंत महत्वपूर्ण
Discriptive Catalogue of Mss in the Jaina Bhandars at Pattan G.O.S. 73, Baroda, 1937, p 56