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________________ 378 इसके अतिरिक्त विविध तीर्थ - कल्प ( 13वीं शती) और तीर्थ मालाएँ भी जो कि 12वीं - 13वीं शताब्दी से लेकर परवर्ती काल में पर्याप्त रुप में रची गई, तीर्थों की महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती हैं। जैन साहित्य में तीर्थयात्रा संघों के निकाले जाने संबंधि विवरण भी 13वीं शती के पश्चात् रचित अनेक तीर्थमालाओं एवं अभिलेखों में यंत्र-तंत्र मिल जाते हैं, जिनकी चर्चा आगे की गई है । तीर्थयात्रा का उद्देश्य न केवल धर्म साधना है, अपितु इसका व्यावहारिक उद्देश्य भी है, जिसका संकेत निशीथचूर्णी में मिलता है, उसमें कहा गया है कि जो एक ग्राम का निवासी हो जाता है और अन्य ग्राम-नगरों को नहीं देखता, वह कूपमंडूक होता है । इसके विपरीत जो भ्रमणशील होता है वह अनेक प्रकार के ग्राम-नगर, सन्निवेश, जनपद राजधानी आदि में विवरण कर व्यवहार कुशल हो जाता है तथा नदी, गुहा, तालाब, पर्वत आदि को देखकर चक्षु सुख को भी प्राप्त करता है। साथ ही तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों को देखकर दर्शन विशुद्धि भी प्राप्त करता है । पुनः अन्य साधुओं के समागम का भी लाभ लेता है और उनकी समाचारी से भी परिचित होता है । परस्पर दानादि द्वारा विविध प्रकार के घृत, दही, गुड़, क्षीर आदि नाना व्यंजनों का रस भी ले लेता है । " 37 - निशीथ चूर्णी (7वीं शती) के उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि जैनाचार्य यात्रा की आध्यात्मिक मूल्यवत्ता के साथ-साथ उसकी व्यावहारिक उपादेयता भी स्वीकारते थे। 37. 1 अहाव : तस्स भावं पाऊण भणेजा - "सो वत्थव्वो एगगामणिवासी कूवमंडुक्को इवण गामण गरादी पेच्छति । अम्हे पुण अणियतवासी, तुमं पि अम्हे हि समाणं हिडंतो णाणाविध-गाम-णगरागर - सन्निवेस - रायहाणि जणवदे य पेच्छंतो अभिधाकुसलो भविस्ससि, तहा सरवादि - वप्पिणि- णदि - कूप - तडाग - काणणुज्जोण कंदर - दरि - कुहर - पव्वतेय णाणाविह - रुक्खसोभिए पेच्छंतो चक्खुसुहं पाविहिसि, तित्थकराण य तिलोगपुइयाण जम्मण विहार केवलुप्पाद निव्वाणभूमीओ य पेच्छंतो दंसणसुद्धि काहिसिं तहा अण्णेण्ण साहुसमागमेण य सामायारि कुसलो भविस्ससि, सुव्वापुव्वे य चेड़ए वंदंतो बोहिलाभं निज्जित्तेहिसि, अण्णोण्ण सुय दाणाभिगमसड्ढे सु संजमाविरुद्धं विविध - वंजणोववेयमण्यं घय गुल - दधि क्षीरमादियं च विगतिवरिभोगं पाविहिसं ॥ 2716 || - निशीथचूर्णी, भाग 3, पृ. 24, प्रकाशक- सन्मतिज्ञानपीठ, आगरा
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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