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________________ 338 भगवती आराधना मूलतः यापनीय परंपरा का ग्रंथ है और यापनीय परंपरा आगमों को मान्य करती रही है। अतः भगवती आराधना में उपलब्ध होने वाली इन कथाओं का मूलस्त्रोत को मरणविभक्ति ही प्रतीत होता है । हो सकता है कि कुछ कथाओं में परंपरागत मान्यता भेद हो, किन्तु ऐसे भेद अधिक नहीं है। यह तो निश्चित है कि मरण विभक्ति भगवती आराधना से पूर्ववर्ती है क्योंकि उसमें गुण स्थान जैसा परवर्ती काल में विकसित सिद्धांत अनुपस्थित है, जबकि भगवती आराधना में यह सिद्धांत उपलब्ध है। किन्तु यह निर्णय कर पाना कठिन है कि भगवती आराधना और सस्तारक प्रकीर्णक में से कौन प्राचीन है। यद्यपि संस्तारक में हमें कहीं भी गुणस्थान की अवधारणा का उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु मात्र इसी आधार पर संस्तारक को भगवती आराधना से पूर्ववर्ती कहना कठिन है । इस तुलनात्मक अध्ययन से यह भी फलित होता है कि संस्तारक की जो 48 गाथाएँ भक्तपरिज्ञा, मरणविभक्ति आदि प्रकीर्णकों एवं भगवती आराधना में समान रूप से मिलती है उनमें दृष्टांत संबंधी जो गाथाएँ हैं, वे पूर्णतः समान नहीं हैं। कहीं-कहीं तो यह देखा गया है कि जो दृष्टान्त / गाथाएँ मरणविभक्ति में विस्तारपूर्वक हैं, वे संस्तारक में अत्यंत संक्षिप्त रूप में दी गई हैं। साथ ही कुछ दृष्टांत ऐसे भी हैं जो संस्तारक में विस्तारपूर्वक हैं तो मरणविभक्ति में संक्षेप में उपलब्ध हैं । अतः विस्तार और संक्षिप्तता. के आधार पर इन कथा / दृष्टांतों का पूर्वापरत्व का निश्चय कर पाना अत्यंत कठिन है, किन्तु इस प्रकार गाथाओं की विषयवस्तु की समानता होते हुए भी गाथाओं के स्वरूप भेद होने से अथवा कहीं-कहीं एक-एक, दो-दो चरणों में स्पष्ट भेद होने से ऐसा लगता है कि संस्तारक प्रकीर्णक की रचना का आधार चाहे मरणविभक्ति आदि प्रकीर्णक रहे हों, किन्तु यह ग्रंथ मात्र संकलन नहीं है, वरन् एक स्वतंत्र रचना है । जैन परंपरा में साधना की पूर्णता समाधिमरण में ही मानी गई है । जैसे एक विद्यार्थी वर्ष पर्यंत अभ्यास करता रहे, किन्तु परीक्षा के अवसर पर यदि वह प्रश्नों का सम्यक् उत्तर देने में असफल रहता है तो उसका वर्ष भर का परिश्रम निरर्थक हो जाता है उसी प्रकार जो साधक समाधिमरण के अवसर पर यदि असफल हो जाता है तो उसकी जीवन पर्यंत की साधना निर्मूल्य बन जाती है । यही कारण रहा कि जैनाचार्यों ने समाधिमरण की साधना को अत्यंत महत्वपूर्ण बताया और इसे पूर्ण करने हेतु अनेक ग्रंथों की रचना की । इन ग्रंथों का सम्यक् अध्ययन और अध्यापन
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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