________________
337 दिया गया किन्तु तब भी गजसुकुमाल ने समाधिभाव से उत्तम-अर्थ को प्राप्त किया।' इस प्रकार संस्तारक प्रकीर्णक की यह कथा श्वेताम्बर परंपरा से भिन्न किन्तु दिगम्बर परंपरा के समान है। मरणविभिक्ति में गजसुकुमाल का उदाहरण तो दिया है, किन्तु वह आगमिक परंपरा अर्थात् अन्तकृतदशासूत्र के अनुरूपही है। इससे यह फलित होता है कि संस्तारक प्रकीर्णक में गजसुकुमारल की कथा का आधार आगमिकधारा से भिन्न कोई अन्य स्त्रोत है और यह हम पूर्व में ही निर्देश कर चुके हैं कि संस्तारक में उपलब्ध होने वाली ये कथाएँ श्वेताम्बर आगमिक व्याख्या साहित्य में उपलब्ध होती है। अचेल परंपरा में ये कथाएँ भगवती आराधना के पश्चात् हरिषेण के बृहत्कथाकोश में उपलब्ध होती हैं, किन्तु यह स्पष्ट है कि हरिषेण के बृहत्कथाकोश का आधार भगवती आराधना ही है । अतः भगवती आराधना में उपलब्ध होने वाली ये कथाएँ बृहत्कथाकोश में यथावत् मिलें, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। इससे केवल इतना ही प्रतिफलित होता है कि अचेल एवं सचेल दोनों हीधराओं में ये कथाएँ समान रूप से प्रचलित रही हैं। दोनों परंपराओं में इन गाथाओं की उपलब्धि यह भी सूचित करती है कि इन दोनों का मूलस्त्रोत एकहीरहा है।
___ इन कथाओं/दृष्टांतों में चाणक्य का उल्लेख होने से यह भी स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि इनमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी छिपे हुए हैं । ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परंपराओं में चन्द्रगुप्त और उनके प्रधान आमात्य चाणक्य को जेन परंपरा का अनुयायी बतलाया जाता है। शेष कथाओं के भी ऐतिहासिक होने की संभावना तो पूरी है किन्तु जैनेतरर अन्य स्त्रोतों से उसकी कोई पुष्टि कर पाना कठिन है। सामान्यतया यह भी स्पष्ट है कि मरणविभक्ति से उद्धृत इन कथाओं में से कोई भी कथा ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसी नहीं है जो भद्रबाहु के पश्चात् की हो । मरणविभक्ति और भगवती आराधना दोनों ग्रंथों में कथाओं की संख्या संस्तारक की अपेक्षा अधिक है। अतः इन दोनों ग्रंथों में उपलब्ध होने वाले इन कथा/दृष्टांतों का संपूर्ण तुलनात्मक अध्ययन भी आवश्यक है।
1.
अन्तगडदसाओ: सम्पा. मुनि मधुकर, प्रका. आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 8131221