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________________ 303 समाधिमरण का मूल्यांकन : स्वेच्छामरण के संबंध में पहला प्रश्न यह है कि क्या मनुष्य को प्राणान्त करने का नैतिक अधिकार है ? पं. सुखलालजी ने जैन दृष्टि से इस प्रश्न का जो उत्तर दिया है उसका संक्षिप्त रूप यह है कि जैन धर्म सामान्य स्थितियों में चाहे वह लौकिक हो या धार्मिक, प्राणान्त करने का अधिकार नहीं देता लेकिन जब देह और आध्यात्मिक सद्गुण, इनमें से किसी एक की पसंदगी करने का विषम समय आ गया हो तो देह का त्याग करके भी अपनी विशद्ध आध्यात्मिक स्थिति को बचाया जा सकता है। जैसे सती स्त्री दूसरा मार्ग न देखकर देह नाश के द्वारा भी अपने सतीत्व की रक्षा कर लेती है । " जब तक देह और संयम दोनों की समान भाव से रक्षा हो सके तब तक दोनों की ही रक्षा कर्तव्य है किन्तु जब एक की ही पसंदगी करने का प्रश्न आये तो सामान्यजन देह की रक्षा पसंद करेंगेऔर आध्यात्मिक संयम की उपेक्षा करेंगे, जबकि समाधिमरण का अधिकार इससे उलटा करेगा। जीवन तो दोनों ही हैं- दैहिक और आध्यात्मिक । आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए प्राणान्त या अनशन की इजाजत है । पामरों, भयभीतों और लालचियों के लिये इसकी इजाजत नहीं है। भयंकर दुष्काल, तंगी आदि में देहरक्षा के निमित्त संयम से पतित होने का अवसर आ जाये या अनिवार्य रूप से मरण लाने वाली बीमारियों के कारण स्वयं को और दूसरों को निरर्थक परेशानी होती हो, फिर भी संयम और सद्गुण की रक्षा संभव न हो तब मात्र समभाव की दृष्टि से संथारे या स्वेच्छामरण का विधान है । इस प्रकार जैन दर्शन मात्र सद्गुणों की रक्षा निमित्त प्राणान्त करने की अनुमति देता है, अन्य स्थितियों में नहीं । यदि सद्गुणों की रक्षा के निमित्त देह का विसर्जन किया जाता है तो वह अनैतिक नहीं हो सकता । नैतिकता की रक्षा के लिए किया गया देह - विसर्जन अनैतिक कैसे होगा ? जैन दर्शन के इस दृष्टिकोण का समर्थन गीता में भी उपलब्ध है। गीता कहती है कि यदि जीवित रहकर (आध्यात्मिक सद्गुणों के विनाश के कारण) अपकीर्ति की संभावना हो तो उस जीवन से मरण ही श्रेष्ठ है । " आदरणीय काका कालेलकर लिखते हैं 'मृत्यु शिकारी के समान हमारे पीछे पड़े 30. दर्शन और चिंतन, खण्ड-2, पृ. 533-34 31. 'संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादनिरिच्यते । ' - गीता 2134
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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