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________________ 302 है, जबकि समाधिमरण में मृत्यु से निर्भयता होती है। आत्महत्या असमय मृत्यु का आमंत्रण है जबकि संथारा या समाधिमरण मात्र मृत्यु के स्थित होने पर उसका सहर्ष आलिंगन है। आत्महत्या के मूल में या तोभय होता है या कामना, जबकि समाधिमरण में भय और कामना दोनों की अनुपस्थिति आवश्यक होती है। समाधिमरणआत्म-बलिदान से भी भिन्न है। पशु-बलि के समान आत्म-बलि की प्रथा भी शैव और शाक्त सम्प्रदायों में प्रचलित रही है। लेकिन समाधिमरण को आत्म-बलिदान नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आत्म-बलिदान भी भावना का अतिरेक है। भावातिरेक आत्म-बलिदान की अनिवार्यता है जबकि समाधिमरण में भावातिरेक नहीं वरन् विवेकका प्रकटन आवश्यक है। ___समाधिमरण के प्रत्यय के आधार पर आलोचकों ने यह कहने का प्रयास भी किया है कि जैन दर्शन जीवन से इकरार नहीं करता वरन् जीवन से इंकार करता है, लेकिन गंभीरतापूर्वक विचार करने पर यह धारणा भ्रांत ही सिद्ध होती है। उपाध्याय अमरमुनिजी लिखते हैं- वह (जैन दर्शन) जीवन से इंकार नहीं करता अपितु जीवन के मिथ्या मोह से इंकार करता है। जीवन जीने में यदि कोई महत्वपूर्ण लाभ है और वह स्व-पर की हित साधना में उपयोगी है तो जीवन सर्वतोभावेन संरक्षणीय है। आचार्य भद्रबाहुभी ओघनियुक्त में कहते हैं- साधक का देह ही नहीं रहा तो संयम कैसे रहेगा, अतः संयम की साधना के लिए देह का परिपालन इष्ट है । लेकिन देह के परिपालन की क्रिया संयम के निमित्त है अतः देह का ऐसा परिपालन जिससे संयम ही समाप्त हो, किस काम का? साधक का जीवन न तो जीने के लिए है न मरने के लिए है, वह तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सिद्धि के लिए है। यदि जीवन से ज्ञानादि आध्यात्मिक गुणों की सिद्धि एवं शुद्ध वृद्धि हो तो जीवन की रक्षा करते हुए वैसा करना चाहिए किन्तु जीवन से ही ज्ञानादि की अभिष्ट सिद्धि नहीं होती हो तो वह मरण भी साधक के लिए सर्वथारक्षणीय . . . . . . . 27. अमरभारती, मार्च 1965, पृ. 26 28.ओघनियुक्ति, गाथा 47 29. अमरभारती, मार्च 1965, पृ. 26 तुलना कीजिये - विसुद्धिमग्ग, 1।133
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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