SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 304 ' और बचने के लिए भागते जावें यह दृश्य मनुष्य को शोभा नहीं देता । जीवन का प्रयोजन समाप्त हुआ, ऐसा देखते ही मृत्यु को आदरणीय अतिथि समझकर उसे आमंत्रण देना, उसका स्वागत करना और इस तरह से स्वेच्छा- स्वीकृत मरण के द्वारा जीवन को कृतार्थ करना यह एक सुंदर आदर्श है। आत्महत्या को नैतिक दृष्टि से उचित मानते हुए वे कहते हैं कि इसे हम आत्महत्या नहीं कहें, निराश होकर, कायर होकर या डर के मारे शरीर छोड़ देना यह एक किस्म की हार ही है। उसे हम जीवन-द्रोह भी कह सकते हैं। सब धर्मों ने आत्महत्या की निंदा की है लेकिन जब मनुष्य सोचता है कि उसके जीवन का प्रयोजन पूर्ण हुआ, ज्यादा जीने की आवश्यकता नहीं रही तब वह आत्म साधना के अंतिम रूप के तौर पर अगर शरीर छोड़ दे तो वह उसका हक है। मैं स्वयं इस अधिकार का समर्थन करता हूँ। 2 32 समकालीन विचारकों में आदरणीय धर्मानन्द कौशाम्बी, महात्मा गाँधी आदि भी मनुष्य को प्राणान्त करने के अधिकार का समर्थन नैतिक दृष्टि से किया था। महात्माजी का कथन है कि जब मनुष्य पापाचार का वेग बलवत्तर हुआ देखता है और आत्महत्या के बिना अपने को पाप से नहीं बचा सकता तब होने वाले पाप से बचने के लिए उसे आत्महत्या करने का अधिकार है ।" कौशाम्बीजी ने भी अपनी पुस्तक 'पार्श्वनाथ का चातुर्मास धर्म' में स्वेच्छामरण का समर्थन किया था और उसकी भूमिका में पं. सुखलालजी ने अपनी स्वेच्छा मरण की इच्छा को भी अभिव्यक्त किया था, यह उद्धृत किया है। " 34 काका कालेलकर स्वेच्छामरण को महत्वपूर्ण मानते हुए जैन परंपरा के समान ही कहते हैं कि जब तक यह शरीर मुक्ति का साधना हो सकता है तब तक अपरिहार्य हिंसा को सहन कर भी इसे जिलाना चाहिये। जब हम यह देखें कि आत्मा के अपने विकास के प्रयत्न में शरीर बाधा रूप होता है तब हमें उसे छोड़ना ही चाहिए। जो किसी हालत में जीना चाहता है उसकी निष्ठा तो स्पष्ट है ही, लेकिन जो जीवन से ऊब कर अथवा केवल मरने के लिए मरना चाहता है, तो उसमें भी विकृत शरीर-निष्ठा है । जो 32. परमसखामृत्यु, पृ. 31 33. उद्धृत-परमसखामृत्यु, पृ. 26 34. पार्श्वनाथ का चातुर्मास धर्म, भूमिका
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy