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________________ - 295 उतारता है वह संस्तारक (संथारा) है । इस प्रकार ‘संस्तारक' शब्द वस्तुतः समाधिमरण से ही संबंधित है। संलेखना शब्द का अर्थ जैन पंरपरा में शरीर और कषाय के अपकर्षण या तनुकरण के रूप में किया जाता है"। यहाँ समाधिमरण या संथारे के संबंध में थोड़ी विस्तार से चर्चा करना उचित प्रतीत होता है। जैनधर्म में संथारा (समाधिमरण) कास्वरूपः - जैन परंपरा के सामान्य आचार नियमों में संलेखनायासंथारा (मृत्युवरण) एक महत्वपूर्ण तथ्य है । जैन गृहस्थ उपासकों एवं श्रमण साधकों दोनों के लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का विधान जैन आगमों में उपलब्ध है। जैनागम साहित्य ऐसे साधकों की जीवन गाथाओं से भरा पड़ा है जिन्होंने समाधिमरण का व्रत ग्रहण किया था। (समाधिमरण में मनुष्य का मृत्यु पर शासन होता है, जबकि अनिच्छापूर्वक मरण में मृत्यु मनुष्य पर शासन करती है। पहले को पण्डितमरण कहा गया है जबकि दूसरे को बाल (अज्ञानी) मरण कहा गया है। एक ज्ञानीजन की मौत है और दूसरी अज्ञानी की। अज्ञानी विषयासक्त होता है इसलिए वह मृत्यु से डरता है, जबकि सच्चा ज्ञानी अनासक्त होता है इसलिए वह मृत्यु से नहीं डरताहै।"जो मृत्यु से भय खाता है उससे बचने के लिए भागा-भागा फिरता है, मृत्यु भी उसका सदैव पीछा करती रहती है, लेकिन जो निर्भय हो मृत्यु का स्वागत करता है और उसे आलिंगन दे देता है, मृत्यु उसके लिए निरर्थक हो जाती है। जो मृत्यु से भय खाता है, वही मृत्यु का शिकार होता है, लेकिन जो मृत्यु से निर्भय हो जाता है वह अमरता की दिशा में आगे बढ़ जाता है। साधकों के प्रति महावीर का संदेश यही था कि मृत्यु के उपस्थित होने पर शरीरादि से अनासक्त होकर उसे आलिंगन दो।" महावीर के दर्शन में अनासक्त जीवन शैली की यही महत्वपूर्ण कसौटी है, जो साधक मृत्यु से भागता है, वह सच्चे अर्थ में अनासक्त जीवन जीने की कलासे अनभिज्ञ है। जिसे अनासक्त मृत्युकी कला नहीं आती उसे 11. अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग 7, पृष्ठ 217 12. 'बालाण' तुअकामंतुमरणं असइंभवे। पंडियाणंसकामंतु उक्कोसेणसई भवे॥' - उत्तराध्ययनसूत्र, 5132 13. वही, 5132
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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