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(20) सिद्धप्राभृत, (21) सारावली और (22) जीवविभक्ति'।
इस प्रकार मुनिश्री पुण्यविजयजी ने बाईस प्रकीर्णकों में संस्तारक प्रकीर्णक का भी उल्लेख किया है। आचार्य जिनप्रभ के दूसरे ग्रंथ सिद्धान्तागमस्तव की विशालराजकृत वृत्ति में भी संस्तारक प्रकीर्णक का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इस प्रकार जहाँ नन्दीसूत्र और पाक्षिक सूत्र की सूचियों में संस्तारक प्रकीर्णक का उल्लेख नहीं है वहाँ आचार्य जिनप्रभ की सूचियों में संस्तारक प्रकीर्णक का स्पष्ट उल्लेख है। इसका तात्पर्य यह है कि संस्तारक प्रकीर्णक नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र से परवर्ती किन्तु विधिमार्गप्रपासे पूर्ववर्ती है। संस्तारक प्रकीर्णकः
संस्तारक प्रकीर्णक प्राकृत भाषा में निबद्ध एक पद्यात्मक रचना है। इसका प्रतिपाद्य विषय 'समाधिमरण' है। जैन परंपरा में समाधिमरण के जो पर्यायवाची प्राचीन नाम पाये जाते हैं उनमें संलेखना' और 'संथारा' ये दोनों नाम अति प्राचीन हैं। 'संथारा' अर्थात् संस्तर (सम् + तृ + अप्) शब्द का सामान्य अर्थ तो ‘शय्या' होता है, किन्तु उपासकदशांग में सिज्जासंथारे' ऐसे संयुक्त प्रयोग मिलते हैं। इससे स्पष्ट है कि दोनों शब्दों में आंशिक अर्थ भेद भी रहा है। वस्तुतः जैन परंपरा में संथारा' शब्द सामान्य शय्या' का सूचक नहीं होकर मृत्यु-शय्या' का भी सूचक रहा है। संथारा' शब्द का संस्कृत रूपांतरण संस्तारक' भी किया है। संस्तारक शब्द का एक अर्थ सम्यक् रूप से पार उतारने वाला भी होता है । ('संस्तरन्ति साधवोऽस्मिन्निति संस्तारः' अर्थात् जो व्यक्ति को संसार - समुद्रसे अथवाजन्म - मरण के चक्र से पार
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8.
7. पइण्णयसुत्ताई, भाग1, प्रस्तावना पृष्ठ18
वन्दे मरणसमाधि प्रत्याख्यान महा' - ऽतुरो' पपदे। संस्तारक-चन्द्रवेध्यक-भक्तपरिज्ञा-चतुःशरणम्॥32॥ वीरस्तव-देवेन्द्रस्तव- गच्छाचारमपिचगणिविद्याम। द्वीपाब्धिप्रज्ञप्ति तण्डुलवैतालिकंचनमुः॥33॥
- उद्धृत- H.R.Kapadia, The Canonical Literature of the Jains-P.51 9. उवासगदसाओ: सम्पा. मुनि मधुकर, प्रका. आगमप्रकाशन समिति,
ब्यावर, वर्ष 1980, सूत्र 55 10. द्रष्टव्य है - अभिघान राजेन्द्र कोश, भाग 7, पृ. 150